Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 188
________________ सिद्धता अर्थात् जगतका अनादि-अनंत स्वरूप, एकेश्वरवाद-अद्वैतवाद, ईश्वरका अवतारवाद, ईश्वरकी सर्वशक्तिमानताजगत्कर्तुत्वादि ईश्वर विषयक विवेचन; जैनोंका अनीश्वरवाद एवं जैनोंकी मूर्तिपूजाका विधि-विधान-स्वरूपादिका वर्णन: जैन एवं जैनेतर धर्मोका स्वरूप-सिद्धान्त-देव-गुरुविषयक मान्यतायें; वेद रचनाओंकी पौरुषेयता-आर्यवेदअनार्यवेद; विश्वके सर्व धर्मोंसे जैनधर्मकी तुलनाः धर्माध्ययनका उद्देश्य और प्रविधि एवं निष्कर्षादि अनेकानेक विषयोंका विस्तृत-विश्लेषित विवेचन और विवरण किया है । मूल जैनागम साहित्यकी नींव प्राकृत भाषा है, तो उसपर निर्मित भव्य भुवन है संस्कृत साहित्य । जैसे नींवसे महालय सर्वांगिण स्वरूपमें श्रेष्ठ-विशद-आकर्षक-नयनाभिराम होता है, वैसे ही मूल जैनागमोंके प्राकृत साहित्याधारित, संस्कृत साहित्यका विशाल जैन वाङ्मय प्रत्येक विभिन्न विषयोंको विशिष्ट रूपमें व्याख्यायित करके मधुर पेशलताके साथ मनमोहक रूपमें लोकप्रिय बनकर जनताके हृदय सिहांसन पर आसीन हुआ है। उसे ही नयी सजावट देनेवाले प्रादेशिक भाषा साहित्यकी अहमियत भी कम प्रशंसनीय नहीं है । नूतन सज्जाके इस अभियानमें हिन्दी खड़ीबोलीके जैन साहित्यका विशिष्ट परिचय अत्र. दृष्टव्य है । मध्यकालमें हिन्दी-गुजराती-मारवाड़ी-ब्रजादि भाषायें जब अपने अपने स्वरूपको संवारते हुए स्वस्थ हो रहीं थीं, तब उनमें प्राप्त सामीप्य, सादृश्य और साधर्म्य आश्चर्यकारी था, जिसका असर तत्कालीन महोपाध्याय श्री यशोविजयजीम.सा., श्री वीर विजयजीम., श्री चिदानंदजीम., श्री आनंदघनजीम, आदि जैन साहित्यकारों में भी दृश्यमान होता है । तदनन्तर श्री आत्मानंदजीम.के समय तक आते आते उसमें कुछ सम्मार्जित साहित्यिक रूप प्राप्त होता है, जो भारतेन्दुयुगाभिधानसे प्रसिद्ध हैं । यहाँ तक साहित्यकारोंका लक्ष्य केवल धार्मिक सिद्धान्तोंकी प्ररूपणा-अथवा व्याख्यायें करना, योगाभ्यासादिका विधान, न्याय-तर्कादि साहित्यपर नव्यन्यायादिके परिवेशमें नूतन साहित्य गठन, परमात्माकी विविध प्रकारसे भक्ति आदिकी रचनाओंके प्रति था । सामाजिक-जन सामान्यके प्रश्नों, समस्याओं और उलझनोंका संकेत भी नहीं मिलता है । बेशक महोपाध्यायजी श्री यशोविजयजीम.ने अपने साहित्यमें तत्कालीन अव्यवस्था और अंधेरके लिए चिंता प्रदर्शित की है, लेकिन उनमें भी प्राधान्य तो धार्मिक रूपमें जैन समाजके उपेक्षा भावको ही मिला है । भारतेन्दु युगीन देनके प्रभावसे और स्वयंकी परोपकारार्थ, तीक्ष्ण मेधासे स्वतंत्र विचारधाराके फलस्वरूप श्री आत्मानंदजीम.सा.के साहित्यमें जन-जीवनके स्पर्शका अनुभव होता है । युगका परिवेश उन्हें उस ओर आकर्षित कर गया जिसने उनके साहित्यमें धर्मादि विषय निरूपणके साथ सामाजिकता, ऐतिहासिकता, भौगोलिक या वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्यको उजागर करवाया । श्री सिद्धसेन दिवाकरजीम.सा.ने जैसे युगानुरूप संस्कृत भाषामें न्याय एवं तर्कके शास्त्रीय अध्ययनको अग्रीमता देते हुए बहुधा उसी भाषामें उन नूतन विषयक साहित्य रचना करके एक नया अभिगम स्थापित किया था, उसी तरह उनके अनुगामी श्री आत्मानंदजीम.सा.ने भी अपने युगानुरूप हिन्दी भाषामें धार्मिकादिके साथ ऐतिहासिक या सामाजिकादि विषयोंसे संलग्न जैन वाङ्मय रच कर, विशेष रूपसे हिन्दी गद्य साहित्यको समृद्ध करते हुए हिन्दीभाषी जिज्ञासुओंके लिए नया पथप्रदर्शन करके परमोपकार किया है। श्री सुशीलजीके अभिमतसे-“सच्चे आत्मारामजीके दर्शन आप उनके ग्रन्थोंमें ही कर सकते हैं, जिनसे उनके अभ्यास, परिश्रम, प्रतिभाका देदीप्यमान आलोक प्रसारित होता है । उस आत्मिक तेजको अक्षर रूपमें प्रकाशमान करनेवाले उनके ये ग्रन्थ मौन रहते हुए भी सदैव अमर रहनेवाली उनकी मुखरित-जीवंत प्रतिमायें हैं ।३ उत्तर मध्यकालीन, उस अज्ञानांधकारके युगमें-प्रायःसंपूर्ण जैन जगतमें, महोपाध्याय श्री यशोविजयजीम.के परवर्तियोंमें, श्रुताभ्यास प्रायःठप- सा हो गया था, तब केवल एक तेजस्वी तारक-श्री आत्मानंदजीम.-ही टिमटिमाते हुए नयनपथमें आते हैं। जिन्होंने अडोल आस्था और तीव्र जिनशासन अनुरागसे, बुद्धि और विचारशीलताके विशिष्ट उपयोगसे सर्वागिण-संपूर्ण-ज्ञान प्राप्तिका अथक पुरुषार्थ किया । जब जैन साहित्य परंपरामें ऐतिहासिक और वैज्ञानिक परीक्षण प्रविधियोंका किसीको अंदाज़ भी न था, ऐसे समयमें आचार्य प्रवरश्रीने आश्चर्यकारी स्मरण शक्तिसे जैन-जैनेतर वाङ्मयके विशाल-गहन-गंभीर वाचनः पदार्थके हार्द पर्यंत (163) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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