Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 187
________________ रसालंकार, प्रतीक-बिम्ब-छंद, राग-रागिणीके वैविध्यसाजकी सजावटसे युक्त दार्शनिक-सैद्धान्तिक एवं क्रियानुष्ठानादिके अनुरूप, साथही परमात्माकी परम भक्ति भरपूर, भावात्मक-मार्मिक और हृदय स्पर्शी, सुंदर और रसीले काव्यपद्य साहित्य तथा प्रभावोत्पादक-नवोन्मेषशालीनी बुद्धि प्रतिभाके परिपाकको संप्रेषणीय रूपमें, प्रतिपादनात्मक अथवा खंडन-मंडन शैलीमें, तो कभी-कहीं प्रश्नोत्तर रूपमें षड्दर्शन और विशिष्ट रूपसे जैन दर्शनकी अनेकान्तिक धार्मिक-तार्किक-तात्विक, ऐतिहासिक या वैज्ञानिक प्ररूपणा करके जिनशासनकी उत्तमता, अनन्यता, अद्वितीयतादि सिद्ध करनेवाले सरल-मौलिक गद्य साहित्यकी रचना करके कवि प्रभावककी मानिंद अपना स्थान अष्ट प्रभावकके रूपमें स्थिर करनेवाले आचार्य भगवंतके अनुपम साहित्य द्वारा सम्पन्न हिन्दी जैन साहित्यका यहाँ सिंहावलोकन करवायेंगें । श्री आत्मानंदजीम.सा.का हिन्दी जैन साहित्यमें महत्त्वपूर्ण योगदान :-- पूर्वाचार्यों द्वारा रचित और संगृहित वाङ्मयकी विपुलताका जो चित्रांकन पं.श्री लालचंद्र गांधी(प्राच्य विद्यामंदिर-बड़ौदा) द्वारा किया गया है-दृष्टव्य है; "प्रभावक ज्योतिर्धर जैनाचार्यों द्वारा संगृहित पाटन, जैसलमेर, खंभात, बड़ौदादिके प्राचीन पुस्तक भंडारके निरीक्षणसे ज्ञात होता है, कि उनमें अनेक विध विषयोंके, विविध भाषाओंमें अप्रसिद्ध ग्रन्थ समूह इतने परिमाणमें हैं जिनमें कितने ही ग्रन्थ अत्युपयोगी, अलभ्य या दुर्लभ, जीर्ण-शीर्ण अवस्थामें हैं-उनका यथा योग्य और श्लाघनीय प्रकाशन करने हेतु शतावधि विद्वान एक शतब्दी पर्यंत कार्यरत रहें और श्रीमान लक्ष्मीपतियों द्वारा क्रोड़ों-अरबों परिमाण द्रव्य व्यय हों, फिर भी संपूर्ण संग्रहका प्रकाशन होना शायद ही संभव बनें । २. जैन साहित्यके इस विशाल अगाध महासागरमें प्राचीन भाषायें-मागधी, अर्धमागधी, प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश आदि; राष्ट्रभाषा-हिन्दी(खड़ीबोली); प्रादेशिक भाषायें-ब्रज, अवधि, गुजराती, राजस्थानी, मराठी, तेलुगु, कन्नड़, पंजाबी, उर्दू आदि; विदेशी भाषा-अंग्रेजी आदि भाषाओंमें प्रवाहित आध्यात्मिक क्षेत्रीय दार्शनिक-सैद्धान्तिक (तत्त्वत्रयी, आत्मिक विकासावस्थाके गुणस्थानक क्रमारोहणादि)-परमात्म भक्ति-परमात्माके विशिष्ट, अचिंत्य आत्मिक स्वरूपालेखनादिः जीवन व्यवहार क्षेत्रके नीति विषयक, राजनीति विषयक, इतिहास विषयकादिः संसार विश्व) स्वरूप विषयक भूगोल-खगोल-गणीत, षद्रव्यान्तर्गत विविध विज्ञान, विशिष्ट कर्म-विज्ञानादि प्रायःसर्व विषयोंको समाहित कर्ताः साथही आधि-व्याधि-उपाधि रूप कर्म व्यवस्थाके निष्कर्ष रूप-सर्व कर्म क्षयावस्था अर्थात् मोक्षकी स्थिति-स्थानलक्षण-स्वरूपादिको लक्ष्यकर्ता साहित्यिक प्रवाहोंका-षड्रस भोजन तुल्य शुद्ध-सुंदर-स्वादु, स्वस्थ और शिवंकर आस्वाद अथवा विविधरंगी, मनभावन, लुभावने आकर्षक साहित्यांकनोंका आह्लाद स्वयंकी ज्ञेय-हेय-उपादेयताको निर्घोषित करते हुए जगज्जनोंके लिए पथप्रदर्शन कर रहे हैं । साहित्यका धर्मसे घनिष्ठ सम्बन्ध होता है, अतःधार्मिक साहित्यके अध्ययन हेतु अध्येताका तद्विषयक ज्ञाता होना आवश्यक है । जैन हिन्दी साहित्य क्रीडांगणमें आचार्य भगवंतके वाणी विलासका अवलोकन करनेसे हमें अनुभव होता है कि साहित्य सृजनके समय आपकी निगाह समक्ष रचना-उद्देश्यके निम्नांकित चित्रांकन प्रेरणा स्रोत बने होंगें-जो उनकी रचनाओंसे भी स्पष्ट होते हैं-संस्कृत-प्राकृतके अनभिज्ञ जैनधर्म जिज्ञासुओंके लिए स्वधर्मका सत्य स्वरूप प्रकट करके तात्त्विक बोध प्रदान करते हुए प्रचलित भ्रान्तियोंके निवारण; निश्चय और व्यवहार मार्गका संतुलन करते हुए उनका प्रचार; पाश्चात्य सांस्कृतिक प्रभावके प्रतिरोध और भारतीय संस्कृतिमें आस्था व अनुरागका उद्भव; जैनधर्म पर होनेवाले आक्षेपोंका परिहार करके जैन सिद्धान्तोंकी एवं मूर्तिपूजादि अनेक अनुष्ठानोंकी आगमिक प्रमाण-युक्ति द्वारा सिद्धिः सम्यक् दृष्टिसे सर्वधर्मोका निष्पक्षतासे तुलनात्मक अध्ययन द्वारा-देश विदेशमें उत्तमोत्तम-उपादेय धर्मके संदेशको प्रसारना । इन इष्ट हेतु सिद्धिके लिए आपने अपने साहित्यमें सर्वधर्म एवं दर्शनके सिद्धान्तोंका परीक्षण करके सर्वधर्मके शास्त्राधारोंको उल्लिखित करते हुए आत्माका अस्तित्व, पुनर्जन्म, आत्माका स्वकर्मानुसार स्वतः सुखदुःखके भोक्ता बनना याने कर्मका कर्ता(सर्जक) और भोक्ता(विसर्जक) बनना, कर्मके सृजन-विसर्जनकी प्रक्रियायें अर्थात् कर्मविज्ञान: आत्माकी मोक्ष पर्यंत विकासावस्थायें मोक्षकी स्थिति-स्वरूपादिकी प्ररूपणा करते हुए 'मोक्ष' विषयक निर्णय; देव-गुरु-धर्म (साधु धर्म-श्रावकधर्म)का स्वरूप, श्रावकके (गृहस्थके) सोलह संस्कार; सृष्टिकी स्वयं (162) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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