Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 175
________________ रूढि परंपरा और शहरी जिंदगीके सामाजिक तनाव-खिंचाव एवं स्वयंके व्यक्तिगत अनुभवों (अभागीपना एवं अनाथता)को संचित किया गया है। जैन दार्शनिक और अद्भुत कवि श्रीआत्मानंदजी म.ने अपनी रचनाओमें विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों-जीवन व्यवहार-आगमिक प्ररूपणाओंको सहज और सरल फिर भी विशिष्ट शैलीमें, लोकभोग्य रूपमें विश्लेषित किया, जिसके स्पष्टीकरण और बोधगम्यीकरणके लिए दृष्टान्तों, तथा या चरित्र चित्रणोंका उपयोग हुआ है। पद्यमें विशेष रूपसे संगितज्ञ कविराजने विभिन्न राग-रागिणीमें अपने अंतर भावोंको केवल जिनेश्वर पाद-पद्मोंकी परम भक्ति रूप समर्पित किया है तो उपदेश-बावनी आदि कृतियोंमें सामान्य जन हितकारक-पथ्यकारी उपदेश समाविष्ट है। उन्हें केवल सर्व कर्म क्षय और मुक्ति महलकी ही आश है। चाहे उसके लिए उन्हें कैसेभी भयंकर-कठोर-कष्ट क्यों न उठाने पड़े, वे हर मुश्किलको श्री जिनेश्वरकी शरण ग्रहण कर निर्भीकता और निष्कंटकतासे पार कर जानेका मेरु सदृश निश्चल-स्थिर विश्वास रखते हैं। इस प्रकार उनके साहित्यमें कदम कदम पर पांडित्यकी मधुर मुस्कान और परमात्म भक्ति विलास उनकी उत्तमताको बिखेरते हैं। निष्कर्ष रूपसे हम कह सकते हैं कि उभयके दिलमें जनकल्याण-परमार्थके साथ आत्मकल्याणके लिए प्रार्थनायें-याचनायें-मनुहार प्राप्त होते हैं। दोनोंको विश्व कल्याणके मनोरथ सिद्ध करने थे जिनमें श्रीआत्मानंदजी म.शतप्रतिशत सफल रहें हैं जबकि तुलसीदासजी उस निसेनीके सोपान चढ़ते चढ़ते थक गये-हार गये और वहीं ठप्प हो गए। जो तहलका जैन जगतमें श्रीआत्मानंदजी म.के साहित्यने मचाया वह अनूठी रंग भरी जागृति लाया है तो श्रीगोस्वामीजीके काव्य तत्कालीन प्रचलित काव्य धाराओंके सफल प्रयोगसे जन-जनकी हृदयतंत्रीको मुखरित करते हैं-ये उनकी कमपात्रता नहीं। आर्यसमाज संस्थापक महर्षि दयानंद और जैन संविज्ञ आद्याचार्य श्रीआत्मानंदजी म.सा.:यहाँ ऐसी दो विरल विभूतियाँ-महान आदर्श महात्माओंकी तुल्यातुल्यता पर विचार विमर्श किया जा रहा है-जिन्होंने स्वयंके संपूर्ण जीवन, पर्यंत सत्यके अन्वेषण-आचरण और सत्यके ही प्रचार-प्रसारमें; सद्धर्मकी सुरक्षामें; समाज कल्याण-समाज नवनिर्माण और समाजोत्थानमें युगप्रधानकी भूमिकायें निभायी हैं। यह वह समय था, जब एक ओर पश्चात्य सभ्यता और धार्मिक विचार धाराकी मंद-मंद-खुशबोदार लेकिन पाश्चात्यताके विषसे विषाक्त बयार बह रही थी, जो भारतीय संस्कृतिकी आत्मघातक सिद्ध हुई। दूसरी ओर भारतीय समाज, सभ्यता और कुछ रूढिगत विकृतियोंके कारण अंदर ही अंदर खोखला होता जा रहा था। यंत्रके इन दो दलोंके मध्य कुचले जानेवाले भारतीय साधारण जनमानस-विविध सुविधाओंके प्रलोभनोंसे और स्वयंकी विभिन्न अपेक्षा-अभिलाषाओंकी पूार्थ-स्वधर्म शत्रु बनकर मुंहमोड़ रहा था, तो परधर्मको गले लगा रहा था और उसीमें ही मानो उसे आरामकी सांस या स्वयंके गौरवका अनुभव हो रहा था । इन परिस्थितियोंका निर्माता महा अज्ञानांधकार था, जो जनजीवनको पतनकी गर्तमें गिराता रहा था। इससे भी अधिक सोचनीय था, धार्मिक अज्ञान! माना जाता है कि सर्व अज्ञानको धर्म ज्ञानप्रकाशसे आलोकित किया जा सकता है लेकिन धर्म सिद्धान्तके अज्ञान रूप महाअजगरने जिन्हें निगल लिया हो उसको कोई भी शक्ति नहीं बचा सकती। ऐसे ही माहौल बीच अधमता-क्रूरता-जोहुकमी-अज्ञानताचूस्त रूढिवादितादि विविध प्रकारकी चक्कियोंमें पीसा जाता समाज अपने उद्धारककी प्रतीक्षा कर रहा था। उस अंधाधुंध-निबिड़ अंधकारमें ज्ञान ज्योतिसे भारतीय प्रजाको रोशन करनेवाले सत्यके मशालचीमहारथी-निर्भीक-साहसिक-अथक-अनवरत-अप्रतीम कार्यशील-प्रमुख दो युग प्रणेताओंका आविर्भाव हुआ।(१) एकका उद्गम स्थान था गुजरात और दूसरेका अवतरण हुआ था वीर प्रसूता पंजाबमें।(२) एक थे ब्राह्मण कुलोत्पन्न शिवपूजक-कर्मकांडी पिताके पुत्र और दूसरे थे-राजा रणजीतसिंहजीके वीर सुभट-क्षत्रिय कुलीनके लाडले बेटे।(३) बाह्य व्यक्तित्वकी तुलनासे प्रतीत होता है कि दोनोंकी देहगठन और चेहरा-मोहरादिकी साम्यता, उनमें सहोदर बंधु युगलकी भ्रान्ति पैदा करती थी। एकने व्यायाम-प्राणायामादिसे और दूसरेने (150 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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