Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 141
________________ निजी-आध्यात्मिक संस्कृतिका विकस्वर बाग और पाश्चात्य संस्कृतिकी आगका परिचय करवानाः साथ ही दोनोंकी तुलना पेश करके यथार्थ और उचित मार्ग पर स्थिर करते हुए अपने आध्यात्मिक ज्ञान सरोवरमें स्नान करनेके लिए युवापीढ़ीको आकृष्ट करना । जैनधर्मका प्रचार समस्त विश्वमें करके-करवाके भगवान महावीरके पंचामृत रूप पंचाचारसे सारे संसारके मानवमात्रको लाभान्वित करना । सगुण-निर्गुण भक्तिकी यथोचित-यथावसर उपयुक्तताको प्रदर्शित करना ही प्रायः उनको अभिप्रेत था और जिसमें उनको सफलता भी प्राप्त हुई थी । इस प्रकार यह साहित्य सृजन यात्रा सं.१९२७ से प्रारम्भ होकर अविरत गतिसे दिन-प्रतिदिन प्रगति करते करते उनके जीवनके अंतिम समय तक-सं.१९५३ तक-चलती रही, जब उनके प्राणोंने देह त्यागा, तब उनके हाथोंसे कलम छूटी । विश्व कल्याणकारी आचार्य प्रवरश्री हिन्दी भाषाके जैन वाङ्मय विश्वके प्रथम साहित्यकारके रूपमें प्रसिद्ध हुए । हिन्दी साहित्यके इतिहासमें गिने-चुने जैन साहित्य और साहित्यकारोंका उल्लेख मिलता है जिनमें श्रीमद्विजयानंद सुरीश्वरजी म.सा.का नाम भी चर्चित हुआ है जो आधुनिक कालके जैनाचार्यों एवं श्री जैनसंघके लिए गौरवकी बात है । आधुनिक खड़ीबोली हिन्दीमें गद्य-पद्य रचना करनेकी परम्पराकी नींव उन्होंने डाली जिन पर अद्यावधि अनेकविध रचनाओंके रूप-रंग और रस हमें आह्लाद प्रदान कर रहें हैं-हमारा ज्ञानवर्धन कर रहे हैं । ऐतिहासिकता पर सर्चलाइटः-इतिहास होता है प्राचीनकालकी तवारिख-भूतकालीन प्रसंगोंको साक्षिभावसे निरखतेपरखते उनको वर्तमानकालमें आस्वाद्य बनानेवाला पुराख्यान । यही कारण है कि इतिहासका माहात्म्य प्राचीनकालसे अर्वाचीनकाल पर्यंत अक्षुण्ण रूपमें अविछिन्नता सहित अनवरत गतिसे प्रवाहित होता रहा है. यथा-श्रीभद्रबाहु स्वामीने कल्पसूत्रमें इसकी महत्ताको इस प्रकार वर्णित किया है . सेवि य णं दारए उमुक्कबालभावे विण्णाय परिणयमिते जोव्वणगमणुपत्ते रिउव्वेअ-जउवेअ-सामवेअ-अथब्बणवेअ-इतिहास पंचपमाणं णिघटुं छट्टठाणं संगोवंगाणं ..... सपरिणिट्ठिए भविस्सइ ।”७३ अर्थात् भद्रबाहु स्वामीने भी ब्राह्मण कुलानुसार चारवेदोंके बाद ज्ञातव्य विषयके निरूपणमें पांचवें क्रम पर इतिहासका जिक्र किया है जो जनजीवनमें इतिहासकी अत्यन्त उपयोगिताको ही स्पष्ट करता है । इतिहासकी अहमियतको 'राजतरंगिनी'-हिन्दी अनुवाद-की प्रस्तावनामें पं. नंदकिशोरजी शर्माने बड़े रोचक ढंगसे प्रस्तुत किया है, जिसे संक्षेपमें इस प्रकार पेश कर सकते हैं-यथा-“इतिहाससे तद्तद् देशोंका अस्तित्व-गौरव-आचार-विचार-प्रकृति-धर्मादि जाना जाता है । इतिहासको दृष्टि समक्ष रखकर राजा प्रजापालनमें समर्थ, मंत्रीवर्ग सन्मति प्रदानकी क्षमतायुक्त और प्रजा स्वधर्म व कर्तव्यपालनमें दत्त-चित्त बन सकते हैं । इतिहास अंधकार युगको आलोक प्रदाता और देदीप्यमान वर्तमानका मार्गदर्शक होता है, क्योंकि उसीसे मनुष्य क्या था, क्या हैं, क्या होगा-का अंदाज़ लगाया जा सकता है । इतिहास लक्ष्म्यांधोंके लिए ज्ञानांजनशलाका, राजसी सन्निपातकी घोर निद्रामें सोनेवालोंके लिए चंद्रोदय रस, रोगीके लिए राजवैद्य, घमंडी हकूमतदारोंके लिए परलोककी याद दिलवानेवाले विश्वकर्मा, रिश्वतखोरोंके लिए कालभैरव, अन्यायी शासकोंके लिए महारुद्र, बुद्धिमान राजाओंका सन्मार्ग रहनुमा सद्गुरु, राजनीतिज्ञोंका जीवन, पुरातत्व वेत्ताओंका सर्वस्व, कवियोंकी चातुरीका मूलस्रोत, राजाओंकी कीर्ति चंद्रिकाका चंद्र और बहुरत्ना वसुंधराके कालगर्भमें लुप्त नररत्नोंके विशिष्ट चरित्रोंका उद्घाटक सूर्य समान है । अंततः यही कह सकते हैं कि इतिहास एक अनगिनत प्रभाव रखनेवाला अनुपम चिंतामणी रत्न है ।" __ लेकिन मध्ययुगमें-मुस्लिम शासनकाल दरम्यान उस रत्न पर प्रमादाचरणके फलस्वरूप अज्ञानतावश मिट्टी छा गई थी। पुनःकाल परिवर्तनसे स्वातंत्र्य संग्राम युगमें उस रत्नका चमकार दृष्टिपथ पर फैलने लगा था । प्राचीन संदर्भोके ऐतिहासिक आविष्कारोंने दृष्टि परिवर्तन करवानेमें अपना प्रमुख योगदान दिया । उस युगके प्रभातकालमें बालरविकी प्रभाका प्रसार शनैःशनैः फैल रहा था, जब श्रीआत्मानंदजी म. अपने उत्तरदायित्वको निभाते हुए कदम कदम पर जिनशासनकी स्वर्णिम आभाको चमका रहे थे । यह बात उनकी सूक्ष्म प्रज्ञाके परिघसे परे न थी, कि, तत्कालीन ऐतिहासिक अनुसंधानोंके युगमें जैन वाङ्मयको (116) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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