Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 168
________________ गये है । श्री चिदानंदजी म.के पूजा काव्यके विषयमें श्रीभंवरलालजी नाहटाने अपना अन्वेक्षिक अभिप्राय इस प्रकार व्यक्त किया है - “हमें एक सत्रहभेदी पूजा उपलब्ध है, पर इस समय हमारे पास न होनेसे प्रकाशित नहीं कर सके ।"५३ लेकिन इसका अन्यत्र कहीं भी उल्लेख प्राप्त नहीं होता है; जबकि श्री आत्मानंदजी म.सा.की पाँच पद्य कृतियाँ पूजा प्रकारकी प्राप्त होती हैं । (६) श्री चिदानंजी म.सा.की 'स्वरोदय ज्ञान' कृति श्वासोच्छ्वासके नियमन और उनके शुभाशुभ परिणामोंका परिचय देती है, तो श्री आत्मानंदजी म.सा.ने उसी विषयकी प्ररूपणा अपने “जैन तत्त्वादर्श" ग्रन्थमें नवम परिच्छेदके प्रारम्भमें प्रस्तुत की है यथा - “स्वरका उदय पिछाणिए, अतिही थिर चित धार, ताथी शुभाशुभ कीजिए, भावि वस्तु विचार ॥५४ "तत्त्वज्ञ श्रावकको तत्त्वविचार करना चाहिए, जो पांच है - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाशा.... पांच तत्त्वोंकी पहचान-नासिकाकी पवन ऊँची जावे तब अग्नि तत्त्व, नीचे जावे तब-जल तत्त्व, तिच्छी जावे तो वायु, सुधी तिी जावे तो पृथ्वी और नासिकाके अंदर बहे बाहर न निकले तब आकाश तत्त्व जानना...१५५ इत्यादि अत्यन्त विस्तृत स्वर विचार प्ररूपित किये हैं । (७) श्री चिदानंदजी द्वारा अपनी रचनाओंको लिपिबद्ध न करनेके कारण उनकी रचनाओमें, विशेषतः फूटकलं पदोमें अन्य लोकगीतादि या अन्य कवियोंकी रचनाओंका मिश्रण हो गया है। जबकि श्रीआत्मानंदजी म.की प्रत्येक रचना प्रमाणित रूपमें उनकी अपनी ही है । उन दोनोंकी कृतियोंमें अंतर्निहित भावोंका अनुशीलन करने पर कुछ दृश्य नजरमें आते हैं उसे इस प्रकार वर्णित किया जा सकता है । यथा-ऊंकार प्रणवमंत्र-बीजमंत्र माना गया है अतः सर्वदर्शनमें उसका माहात्म्य स्वमत कल्पनासे किया गया है । वैसे ही ॐकारको जैन दर्शनमें आराधनाके प्रमुख केन्द्र रूप पंच परमेष्ठिको समन्वित् करनेवाले मंगलकारी-कल्याणमयी बीजमंत्रके रूपमें आराधित किया जाता है; जिनका दोनों कवीश्वरोंने यथोचित वर्णन 'सवैया इकतीसा' छंदमें अपनी अपनी कृतियोंके मंगलाचरण रूपमें किया है-यथा “ॐकार अगम अपार प्रवचनसार, महाबीज पंच पद गरभित जाणीए"....५६. “ॐ नीत पंचमीत, समर समर चीत, अजर अमर हीत, नीत चीत धरिए, सूरि उज्झा, मुनि पुज्जा, जानत अरथ गुज्जा, मनमथ मथन कथन सुं न ठरिए । बार आठ षटतीस पणबीस सातबीस शतअठ गुण ईश माल बीच करिए । एसो विभु ॐकार बावन वरण सार, आतम आधार पार, तार मोक्ष वरिए ।५७ 'अहिंसा परमोधर्म' स्वरूप जैनधर्ममें अभयदान प्रधान जीवदयाका अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान स्वीकृत है । यहाँ तक उपदिष्ट है कि प्राण न्यौच्छावर करके भी उसकी पालना कर्तव्य समझा गया है | उस जीवदयाके प्रमुख आठ भेद माने गये हैं . जिसे श्रीआत्मानंदजी म.सा.ने अपने स्तवनमें इस प्रकार गुंफित किया है . “दरव, भाव, स्वदया मन आणो, पर, सरूप, अनुबंधो रे; व्यवहारी, निहचे, गिन लीजो, पालो करम न बंधो रे...भविकजन... “षट्काया रक्षा दिल ठानी, निज आतम समझानी रे, पुद्गलिक सुख कारज करणी, स्वरूप दया कही ज्ञानी रे...भविकजन..."५८ जबकि श्री चिदानंदजी म.ने अपनी 'दया छत्तीसी रचनामें स्वरूप दया और अनुबंध दयाका विशेष रूपमें वर्णन किया है और निष्कर्ष रूपमें विवेकसे ही दयाका महत्त्व स्थापित किया है-श्लोक-२२ । आगे चलकर 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' की विचारधाराको ठोस प्रत्युत्तर देते हुए कहते हैं कि रुधिरका रंग रुधिरसे साफ नहीं हो सकता, वैसे ही हिंसासे व्युत्पन्न पापकी निर्मलता दया रूपी निर्मल नीरसे धोनेसे ही हो सकती है । बिना भावदयाका कायक्लेश-कष्ट-रूप क्रियाकी निष्फलताका निरूपण करते हुए मोह प्रपंचका चित्रणभी करके अंतमें दया-नाव द्वार। भवपार होनेके स्वरूपको वर्णित किया है . __ “दया रूपी तरणी विवेक पतवार जामें; दुविध सुतप रूप खेवट लगाइये । (143) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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