Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 169
________________ दांडा ये चतुर चार, कीजिए शुं अघवार; मालिम सुमन ताकुं तुरत जगाइये । फल शुभ ध्यान मन ताणके तैयार कीजे; शुभ परिणाम केरी तोप ज्युं दगाइये । चिदानंद प्यारे ! ऐसी नावमें सवार होय; मोहमयी सरिताकुं वेग पार पाइये ॥५९ इस विश्वकी सर्व वस्तुएँ नाशवंत है । हमारा जीवन भी क्षणभंगुर है । किस पल सजासजाया उपवन उजड़ जायेगा कोई भरोसा नहीं । दार्शनिकोंने भी इस विनश्वरताको सिद्धान्तोंमें बांधा है तो साहित्यिकोंने अपनी कल्पना-पंखों पर चढ़ाया है । जीवन व्यवहारमें भी हम उसका अनुभव कदम कदम पर करते हैं । उसीको निर्दिष्ट करते हुए उपकारी गुरु भगवंतोने हमें सावधान करते हुए इसका चित्रण किया है । श्री चिदानंदजीके शब्दोमें . “छीजत छीन छीन आउखो, अंजलि जल जिम मीत; काल चक्र माथे भमत, सोवत कहा अभीत ।" तन-धन-जोबन कारिमा, संध्या रंग समान, सकल पदारथ जगतमें, सुपन रूप चित्तजान । ६० अनेक भोगमें विलसित कायाकी माया करने पर भी अंतमें क्या हाल हुआ, उसका चित्रण श्रीआत्मानंदजी म.के शब्दोमें - “रंग बदरंग लाल मुगता कनक जाल पाग धरी लाल राचे ताल तानमें छिनक तमासा करी, सुपनेसी रीत धरी, ऐसे वीरलाय जैसे बादल विहानमें..... “योवन पतंग रंग, छीनकमें होत भंग, सजन सनेहि संग विजके-सा जमको.... “काची काया मायाके भरोसे भमियो तुं बहु नाना दुःख पाया, काया जात तोह छोरके...."६१ जैन दर्शनानुसार यह अस्थिर संसार केवल पुद्गलका प्रपंच जाल है और आत्मा उससे एकदम भिन्न निर्मल स्वरूपी उन नाटकीय रंगोंसे विमुक्त है । लेकिन कर्म पुद्गलोंसे वेष्टित उसमें क्षीर-नीरवत्, दधिनेह या अभ्र-मेहवत् एकमेक हो चूका है । उसे सम्यकज्ञान-दर्शन-चारित्र, तप-जप-ध्यानादिके प्रयोगसे शुद्ध किया जा सकता है । उस उपदेशामृतका आस्वाद कराते हुए श्रीचिदानंदजी म.को सुनिये - “सुअप्पा ! आप विचारो रे, पर पक्ष नेह निवारो रे... यहाँ कनक उत्पल, दूध-घृत, तिल-तेल, कुसुम-सुवास, काष्ट-अग्नि आदिको क्षीर-नीरको भिन्न करनेवाले हंस सदृश भेद-ज्ञान युक्त दृष्टि प्राप्त होने पर क्या होता है? “अजकुलवासी केहरी रे, लेख्यो जिम निज रूप चिदानंद तिम तुम हु प्यारे, अनुभवो शुद्ध स्वरूप..."६२ श्रीआत्मानंदजी म. बारह भावनामें 'अन्यत्व भावना को प्ररूपित करते हुए यह बात स्पष्ट करते हैं कि, जब आत्मा क्षीर-नीरवत् कर्म पुद्गलकी माया छोड़ता है तब स्व स्वरूपको प्राप्त कर लेता है। “आतम सरूप धाया, पुग्गलकी छोर माया, आपने सदन आया, पाया सब घिन्न है ।"६३ इस पुद्गलकी अद्भुत मायाका चित्रण श्रीचिदानंदजी म.ने अपनी 'पुद्गल गीता' कृतिमें स्पष्ट करके आत्माकी (चेतनकी) बेहाली और पुद्गल-संग त्यागसे साध्य प्राप्तिको वर्णित किया है । “पुद्गल पिंड लोलुपी चेतन,जगमें रांक कहावे; पुद्गल नेह निवार, पलकमें, जगपति बिरुद धरावे ।".....४ इस प्रकार पुद्गलकी माया (अनित्यता) समझनेके पश्चात् जीवको धन-कण-कंचन-कामिनिका मोह नहीं रहता । उस सरिता सदृश सरकनेवाली संपत्तिका सदुपयोग करके उसे सफल बनानेका उपदेश श्रीचिदानंदजी म. देते हैं - “धन अरु धाम सहु पडयो ही रहेगो नर, धारके धरामेंतु तो खाली हाथ जावेगो, दान अरु पुण्य निज करथी न कर्यो कछु, होयके जमाई कोई दूसरी ही खावेगो । कूड अरु कपट करी, पापबंध कीनो तात, धार नरकादि दुख तेरो प्राण पावेगो; पुण्य बिना दूसरो न होयगो सखाई तब, हाथ मल मल माखी जिम पसतावेगो । ६५ श्रीआत्मारामजी म. अपने चेतनको उपदेश देते हुए सावधान करते हैं कि अठारह पापस्थानक सेवन करते (144) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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