Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 167
________________ समझा होगा, अथवा उस ओर उनका लक्ष्य ही नहीं रहा होगा । अतः केवल चार कृतियोंके रचनाकाल "गोड़ी पार्श्वनाथ स्तवन १९०४, स्वरोदय ज्ञान - १९०५ और "दयाछत्तीसी एवं प्रश्नोत्तरमाला - १९०६ प्राप्त होते हैं । देविलय:- वि.सं. १९१८ में अंचलगच्छीय श्रीभावसागरजी के शिष्यश्री रत्न परीक्षकजी द्वारा रचित 'श्री सिद्धगिरि तीर्थमाला' में उनका उल्लेख इस प्रकार किया गया है। “ श्री चिदानंद चित्तमां वसे, अमर अमर पद होय.... "श्री चिदानंद गुरु धर्माचारय अनुभव श्रद्धा छायो, सिद्धगिरिनी तलहटीए यांदी, चरण शुं प्रेम लगायो इन प्रमाणोंसे हम यह अंदाज़ा लगा सकते हैं कि आपका देहान्त वि.सं. १९१८ के एक दो साल पश्चात् लोक प्रवादानुसार श्रीसमेतशिखरजीमें होना संभावित है। श्रीसहजानंदजी म. जिन्होंने शिखरजीकी उनके नामसे प्रसिद्ध उस गुफामें ध्यानस्थ दशामें सं. २०१० में उनका साक्षात्कार किया था, तदनुसार उनकी देह यष्टि श्रीमोहनलालजी म. से साम्यता रखती है 199 श्रीमद् राजचंद्रजी उनके साधनारत उदात्त जीवनके लिए अपना अभिप्राय देते हैं "वे प्रायः मध्यम अप्रमत्त दशामें रहते थे । ५२ इस प्रकार उनके क्षर देह संबंधी प्रस्तुतीकरणके पश्चात् अब उनके अक्षरदेहसे परिचय प्राप्त करें जिसने उनको अमरत्व प्रदान किया । अंतर संवेदनाओंकी पृथुलताको लक्ष्यमें रखते हुए उनकी चरम परिणतिको आत्मरतिमें परिणत करनेवाले उनके स्वान्तः सुखाय वाङ्मयके अंतरालकी गवेषणा करनेसे, उनमें अनायास ही अलंकार, छंद, प्रतीक, मानवीकरण, हरियाली (उलटबाँसी) राग-रागिणिके विभिन्न प्रवाहोंसे आप्लावित हृदयग्र ही रस प्रवाहसे पाठक भावित और प्रभावित हो जाता है, क्योंकि उन्होंने लिखनेके अभिप्रायसे आयासपूर्वक कुछ भी नहीं लिखा है जो सहज स्फूर्त होकर शब्दो में प्रस्फुट हुआ, वही उनके चिन्तनका एकदेशीय प्रतिनिधि हो गया है । मानो वे शब्द परिग्रहसे भी मुक्त रहना चाहते हों, अतः उनका स्वयं लिखित कोई पुस्तक या खरड़ा कहीं भी नहीं मिलता है । जो कुछ मिलता है, वह अन्य व्यक्तियोंके संरक्षण और संगुंफनका ही परिणाम है । यही कारण है कि हम यह कह सकते हैं कि स्वान्तसुखाय रखी गई रचनायें किसी भी प्रचार प्रसारके दृष्टिबिन्दु विहिन थीं । । तुल्यातल्यताः- दोनों संत प्रायः समकालीन थे श्रीचिदानंदजी म. का देहविलय वि.सं. १९२० में प्रायः माना जाता है जबकि श्रीआत्मानंदजी म.का १९५२ । लेकिन, एककी जीवनचर्या ही ऐसी थी कि उनके विषयमें आज उनके अक्षरदेहके अतिरिक्त प्रायः ठोस प्रमाणित तथ्य प्राप्त नहीं होते हैं, उनकी नश्वर जीवनचर्याके विषयमें लेखिनी मौन है; जबकि दूसरेके जीवनके प्रायः प्रत्येक प्रत्येक प्रमुख प्रसंगों पर उनके उत्तराधिकारी शिष्यवर्गने पर्याप्त प्रकाश प्रवाहित किया है । अतः तुल्यातुल्यताके प्रसंगमें हम उनके केवल वाङ्मय पर ही विचार विमर्श कर सकते हैं, जिसे इस प्रकारसे तुलित किया जा सकता है । (१) दोनों विद्वान महाकवियोंने अपने काव्योमें सरल अर्थगौरवयुक्त और हृदयंगम बनानेवाले भावोंका चित्रण किया है । श्रीचिदानंदजी म. का प्रायः पूर्ण साहित्य पद्यमें प्राप्त होता है, जबकि श्रीआत्मानंदजी म. का साहित्यका महदंश गद्यबद्ध है, फिरभी बहुमुखी प्रतिभाके स्वामी आचार्य प्रवरश्रीने पद्यको भी पूर्ण न्याय दिया है । (२) दोनोंके काव्योमें विषय वैविध्यकी दृष्टिसे देखें तो उनके साहित्य नभांचलमें इन्द्रधनुषी आभा सदृश अध्यात्म चिंतन और योगसाधना, जैन दार्शनिकता और जैनागमिक सिद्धान्त एवं जिनभक्तिके विविध स्वरूप आत्मसमर्पण आदिकी प्ररूपणा प्राप्त होती है । (३) दोनोंके काव्योमें अगाध कल्पनाशक्ति, अपूर्व अलंकार आयोजन, अद्भूत प्रतीक योजनायें अमूर्तभावोंका मानवीयकरणादिकी संतुलनयुक्त सजावट काव्य सौंदर्यकी आभाको प्राणवान् बनाती है। (४) दोनोंके पद्यो में विविध राग-रागिणीकी नियोजना गायक और श्रोताको मंत्रमुग्धएवं तदाकार बनानेकी क्षमता रखती है । अतः उन्हें सभी अच्छी तरह गाकर निजानंद मस्तीके रसास्वादनका आनंद लूट सकते हैं । (५) दोनोंके पद्य-स्तवन, सज्झाय, पदादि प्रगीत काव्य प्रकारोंमें समाहित किये Jain Education International . . 142 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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