Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 158
________________ और मार्मिक पंक्तियाँ, वाणी वैचित्र्य और स्वरूप वैविध्यः कहीं परभाव-हिंडोले पर खेलती हृदयोर्मियाँ तो कहीं गहन -रहस्यमय-तात्त्विक और आत्मिक अनुभूतियोंकी धारासे शोभित समतोल-सात्त्विक दृष्टिसे अत्यन्त प्रशंसनीय बन गये हैं । श्रीआत्मानंदजीम.की पद्य रचनाओमें उन्हीं काव्यांगोंके ताने-बानेकी नक्काशी सौंदर्यता बक्षती है, और सहसा फूटकर सहज रूपमें प्रवाहित अंतरकी अप्रतीम अनुभूतियाँ आह्लादित करती रहती है । उनकी विषय वैविध्यता सिमित होने परभी प्रयुक्त विषय या भावोंका पिष्टपेषण प्रायः नहीं हुआ । पूजाकाव्योंमें तो उनकी न्यौच्छावरी भावोदधिमें हिलोरें उत्पन्न करती हैं. । इसके अतिरिक्त गद्य साहित्य विषयक तुल्यता अवगाहने पर निष्कर्ष यह प्राप्त होता है कि श्रीयशोविजयजी म.सा.की भाषा पांडित्यपूर्ण-विद्वज्जनोंके मनमयूरको नर्तन करवानेके काबिल है, जिनमें विशेष रूपसे पूर्वाचार्य रचित उत्तम सूत्र ग्रन्थोंकी टीका या वृत्तियोंका निर्माण हुआ है। जबकि श्रीआत्मानंदजी म.सा.की भाषा सरल-सहज-लोकभोग्य फिर भी संस्कृत तत्सम शब्दोंकी बहुलताके कारण सुधी शास्त्रज्ञोंके मनको भी रंजन करवानेमें सक्षम है । कभी विषयानुकूल गहन गंभीर बननेवाली गिरा सामान्यतः सुगम सुबोधदायी प्रवहमान स्वरूप धारण किये हुए जन-मनको प्रसन्न करती है । श्रीयशोविजयजी म.सा.ने अपने ग्रन्थोंमें स्वतंत्र रूपसे न्याय विषयक सैद्धान्तिक साहित्य-जिनमें नव्य न्याय प्रमुख है-की प्ररूपणा की है, जबकि श्री आत्मानंदजी म.सा.ने उन प्ररूपणाओंको व्यवहारमें इतर दर्शनके साथ कैसे घटित करवायी जा सकती है उनके प्रायोगिक प्रसंगोंका विवरण दिया है । दोनोंके आत्मविचार और आगम रहस्य-अध्यात्म-योग और ध्यान; साधु-श्रावक योग्य गुण चर्चायें-और-भावनायें; कर्म और आत्मिक प्रगति प्रदर्शक गुणस्थानक स्वरूपः तत्त्वत्रयी और रत्नत्रयीकी प्ररूपणा-आदिमें उनकी उत्तम श्रुतोपासना और अध्यात्म योग साधना छलकती है। ऐसी स्वतंत्र रचनाओंके अतिरिक्त दोनोंने अमूल्य और अलब्ध प्राचीन ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियाँ की हैं और पूर्वाचार्य कृत ग्रन्थोंमें संशोधन भी किये हैं । कहाँ कहाँ तक गिनाये ! इन दोनों महामनीषियोंकी प्राज्ञताको शब्दोंके घेरेमें बांधनेका यह तो एक क्षुल्लक प्रयत्न किया गया है । उनका जितना विशद उतना ही गहन: हिमगिरिशृंगोंसे भी उन्नत, प्रांजल एवं प्रातीभ पांडित्यको इस विहंगावलोकनमें परिपूर्ण न्याय न मिलना ही स्वाभाविक है । यह तो उन मेधावी और प्रतापी सरस्वती सुपुत्रोंको पुष्पांजलिके पुष्पकी पंखुड़ी सदृश भावार्पण है । उनके अमर साहित्यकी गिर्वाण गाथायें ही स्वयं उस यशोगानका आत्मानंद प्रदान करनेमें सामर्थ्य रख सकती है । यहाँ तो केवल गिने-चूने रसके छिटें ही प्रस्तुति पा सके हैं जिससे रसधाराके तीव्र वेगवान निझरकी कल्पना प्राप्त हों और उसके परिशीलनमें प्रवृत्ति हों यही स्तुत्य कर्तव्यकी यादको सतेज करनेका उद्योग किया गया है । अध्यात्मयोगी श्रीआनंदघनजी म.सा. तथा युगवीर आचार्य श्रीआत्मानंदजी म.सा. “अब हम अमर भये न मरेंगे" के गायक श्रीआनंदघनजी म.सा. अर्थात् अंतरतम आत्माके अणुपरमाणुमें व्याप्त अंतर्यामीका तेजपूंज स्वरूप । आत्मवाणी-आत्मोद्योत-आत्म-प्रतिष्ठा रूप आध्यात्मिक आनंद या मस्तीमें मस्त श्रीलाभानंदजीसे उत्तरोत्तर अध्यात्मके चरमोत्कर्षके बोध प्रापक बननेवाले योगीराज श्रीआनंदघनजी म.नाम और उपनाम-दोनोंको सार्थकता प्रदान करनेवाले अथवा 'यथा नाम तथा गुण' उक्तिको चरितार्थ करनेवाले आध्यात्मिक जीवनके जाज्वल्मान ज्योतिपुंज थे । इनकी सातोंधातु-दशों प्राण-पांच इन्द्रिय और मन-प्रत्येक रोम-रोममें, खूनकी बूंदबूंदमें अर्थात् तन-मन-आत्मा सर्वस्वमें अस्थिमज्जावत् अहर्निश बहती थी परमात्म भक्तिकी पावनी गंगोत्री । जीवनतथ्यः-“संत आनंदघनका जन्म स्थान-समय-नाम, माता-पिता-परिवार, दीक्षा स्थान-समय-गुरु परंपरा-संप्रदाय, देहविलय-स्थान, समय आदिके बारेमें अंतिम निर्णायक ऐतिहासिक तथ्य उपलब्ध नहीं होते हैं । विद्वानोंमें इस सम्बन्धमें मत वैभिन्न एवं विवाद हैं ।२६ जैन साधु प्रायः अपनी पूर्वावस्था (गृहस्थावस्था)का नाम-गोत्र स्थानसमयादिकी उपेक्षा करते हैं । अपनी कृतियोंमें प्रायः गुरु परंपराको उल्लिखित करते हैं । श्रीआनंदघनजी (133) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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