Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 162
________________ “श्याम मेघ सम पासजी निरखी, आतम आनंद शिखी जिम हरखी आनंद रस पूरण सुख देखी आनंद पूरण आतमराम..... अनघ अमल अज चिद्धनराशि, आनंदघन प्रभु आतमराम तोरी छवि मनोहारी संखेश शाम ..... (२) दोनों ही विश्वशांति-विश्व मैत्री और विश्व बंधुत्वकी भावनाको प्रवाहित करनेवाले समन्वयकारी संत थे । (३) आत्माराधनालीन, अद्भूत आराधक, समदर्शी, समताके साधक-आगमोंके अभिज्ञाता-श्रेष्ठ दार्शनिकषड्दर्शनवेत्ता-सम्यक्त्वयुक्त रत्नत्रयीके प्रखर प्रतिपादक-उन दोनोंकी रचनाओमें भी भक्तियोग-ज्ञानयोग-समर्पणयोगकी त्रिवेणीका प्रवाह विशेषतः स्तवनोमें सम्यक् रूपसे प्रवाहित हुआ है । (४) दोनोंने अपने समकालीन साथियोंको योग्य मार्गदर्शन दिया था । हाँलाकि श्रीआनंदघनजीने विशेषतः बनमें निवासित होकर उच्च अध्यात्म योगकी साधना की थी, जबकि श्रीआत्मानंदजी म.ने गुरु और गच्छकी निश्रामें श्रीचतुर्विध संघके मध्य निवास करके श्री संघको सत्यपथका पथिक बनाया था । (५) श्री आनंदघनजीम.ने अपनी उत्तरावस्थामें गच्छकी निश्राको त्यागकर आत्मानुभूति प्राप्त करके जीवन धन्य बनाया था और उन्हीं अनुभूतियोंको जिन काव्यकलापोंसे सजाया था, वे जन समाजके शृंगार बनकर अमरता प्राप्त कर गये; जबकि श्रीआत्मानंदजी म.ने सत्यके साक्षात्कार पश्चात् उत्सूत्राचारी ढूंढक पंथका त्याग करके संविज्ञ समाचारीको गले लगानेमें अपना गौरव समझा था । उन्होंने जिस सत्यका साक्षात्कार किया था, उसे अपने प्रवचनों और लेखिनीके माध्यमसे प्रतिमा-पूजन विरोधियोंको बखूबी समझाया था और जैन समाज-विशेष रूपसे पंजाब, राजस्थानका उद्धार किया, जो इतिहासकी अमरगाथा बन गया । (६) दोनोंकी सामर्थ्यवान आत्मासे मानव जन्मके साफल्य सूचित हेतुओंके अजस्र प्रेरणा स्रोत प्रवाहित होते रहे थे, जिनमें उन्होंने अपने कर्ममलको प्रक्षालित करके स्वयंकी आत्माको भी पावन बनाया था । (७) श्रीआनंदघनजी म.की वाणी वाङ्मय रूपमें सिमित है, लेकिन अगाध और अथाह-अत्यन्त गंभीर और विशद अर्थसभर है जैसे पाताल कूपका पानी । कहीं कहीं तो एक एक पद्य इतना अवबोध समेटे हुए हैं कि उससे एक एक ग्रन्थकी रचना हो सकती है। अद्यावधि प्राप्त साहित्यमें केवल दो कृतियाँ 'श्री आनंदघन जिन चौबीसी' और 'श्री आनंदघन पद बहोत्तरी' प्राप्य है; जो अनेक रागरागिणियोंमें बद्ध विविध भावापन्न पद्य रूप ही है । जबकि श्रीआत्मानंदजी म.का वाङ्मय विहार विभिन्न विषयोंकी अनेक कुंजगलियोंसे गुजरता हुआ आत्म शीतलता प्राप्त करवाता है । उनके बीसियों ग्रंथ-प्रमाण विशद साहित्यने गद्य और पद्यके विविध प्रकारों द्वारा अध्यात्म-भक्ति, आगमिकदार्शनिक-ऐतिहासिक-वैज्ञानिक-आचरणा विषयक आदि विभिन्न विषयोंको अपने में समेट लिया है । (८) दोनोंने व्यक्तिकी सुषुप्त चेतनाको झकझोरनेमें सामर्थ्यवान् फिरभी सरल एवं भाववाही-तत्त्वबोधदायी और मार्मिक तथा हृदयस्पर्शी होनेसे लोकप्रिय अमर रचनाओंके अमूल्य-वैभविक विरासतकी समाजको भेंट की है। (९) दोनोंकी कृतियोंसे झंकृत होता है जिनेश्वरके अचिन्त्य सामर्थ्यके विराट स्वरूपका निरूपण और उत्कृष्ट जिनभक्तिके अंतरोद्गारके साथ साथ महा महिमावान-प्रतिभावान-उदात्त आत्मभावोंका चित्रण-जिसके लिए श्रीआनंदघनजी म.के श्री विमलनाथजी जिन स्तवनके भाव विशेष रूपसे दृष्टव्य है . “विमल जिन दीठां लोयण आज ! मारां सिद्धयाँ वांछित काज..... समरथ साहिब तूं धणी रे, पाम्यो परम उदार धिंगधणी माथे कियो, कुण गंजे नर खेट..... मन विसरामी वालहोरे, आतमचो आधार..... विमल जिन....... अमिय भरी मूरति रची रे, उपमा न घटे कोय शांत सधारस झीलती रे, निरखत तप्ति न होय..... विमलजिन..."३१ इस प्रकार संपूर्ण स्तवन रचनामें, भक्ति रस लबालब भरा हुआ है । ऐसे ही अन्य-ऋषभजिनादि स्तवनों और पदोंसे भी ऐसे भावोंके अनुभव होते हैं । उसी तरह श्रीआत्मानंदजी म.सा.की रचनाओंमें उन (137) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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