Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 161
________________ अदम्य उद्यतताके नीचे दब जाता था । उनकी रुचि तो केवल सूक्ष्मतम आत्म स्वरूपके दर्शन और समग्र जीवसृष्टिके साथ एकरूपता . “अप्पा सो परमप्पा” अथवा “मित्तिमे सव्व भूएसु” की उदात्त भावनाको जीवनमें साकार बनानेके पुरुषार्थमें ही थी ।। अनूठी अध्यात्म शक्ति और निर्मल चरित्रके प्रभावसे निष्पन्न गुप्त लब्धि-शक्तियाँ प्राप्त होने पर भी उनका उपयोग केवल निरहंकार और लोकेषणा-मानप्रतिष्ठादिसे दूर निर्लिप्तभावसे एक मात्र शासनसेवाप्रभावनाके लिए ही करनेवाले अनुभव ज्ञानीका जिनशासनके प्रति अविहड़ राग अनुमोदनीय था । वे अपने समकालीन मुनिवृंदको अमूल्य परामर्श देते रहते थे । उस प्रशम निर्झरकी बूंदें प्राप्त करनेवाले भाग्यवानोमें प्रमुख रूपसे श्रीज्ञानविमल जी.म., श्रीसत्यविजयजी गणि, महोपाध्याय श्रीयशोविजयजी म.आदि थे । उनकी अद्भूत व्याख्यान कलाका जिक्र होते ही कर्ण-पटल पर उठते हैं वे स्वर जो श्रीदसवैकालिक' सूत्रके प्रथम श्लोक (मंगलाचरण) पर छमास पर्यंत विवेचन स्वरूप तरंगित हुए थे । उनके सरलमिलनसार-करुणाई हृदयसे विरागकी वाणी बजती थी जिनमें संदेशके स्वर थे “मोहसुभटको जितनेके लिए यह साधु वेश-धर्मवीरका बाना-धारण किया है अतः उस मोह सुभटके अधीन बनानेवाले भौतिक देहके एक भी अणु-परमाणु मात्र पर भी ममत्वभाव लक्ष्य प्राप्तिमें विघ्नरूप बन सकता है ।" उनके पुण्य प्रकर्षसे प्राप्त लब्धियोंसे निष्पन्न अनेक चमत्कारोंका प्रतिफलन उनके जीवन परिवेशमें व्याप्त विभिन्न अनुश्रुतियोंसे होता है-यथा-(१) साधुजनोंको परेशानकर्ता बादशाहके बेटेको अपनी वचनसिद्धिसे केवल ‘खड़ा रह' कहकर स्तंभित कर दिया था, पुनः बादशाहकी प्रार्थनासे व्युत्पन्न करुणाभावसे उसे 'चलेगा' बोलकर पुनः गतिमान भी कर दिया था । (२) मित्रकी स्वर्णरससिद्ध कूपिकाको पटककर तोड़ देने पर उनके शिष्यकी नाराजगीको दूर करनेके लिए संकल्प मात्रसे पेशाब भी सुवर्णरस-सिद्धरसायन-बन सकता है। वह प्रयोग दर्शाकर चमत्कृत कर दिया था । वैसे ही श्री आत्मानंदजी म.सा.ने बिकानेरमें एक लड़केको, जिसके परिवारवाले दीक्षाग्रहणके लिए इन्कार कर रहे थे, संकल्प बल पर उनकी मनोगत भावनायें पलटकर सर्व सम्मतिसे ठाठबाठसे दीक्षा करवायी थी ।२५ (३) एक बार ज्वरके पुद्गलोंको अपने कपड़े उतारकर आगंतुकोंको धर्मदेशना श्रवण करवायी, पश्चात् पुनः वह कपड़ा पहनकर ज्वरके परमाणु शरीरमें स्थापन कर दिये । (४) अक्षीण लब्धिके बलपर श्राविका धनवंती द्वारा प्रत्येक घडोंमें एक एक सिक्का डालकर उपर कपड़ा लपेटकर मनचाहे (लखलूट) सिक्के निकलवा कर राजाको दान दिलवाया था। (५) जोधपूरके महाराजा-महारानीके मध्य मनमेल करवानेमें निःस्पृहतासे मुंहसे निकला वचन सिद्ध हो गया था (६) सती होनेके लिए जा रही शेठकी बेटीको प्रतिबोध करके आत्म स्वभावमें स्थिर किया । (७) राजाकी दो विधवा बेटियोंका शोक सान्त्वना देकर दूर करवाके धर्ममें स्थिर किया । (८) मारवाड़के गरीब वणिकके लोहेके बाटको स्वर्णमय बनाकर उसकी निर्धनता दूर करके उपकार किया था । श्री आत्मानंदजी म.के जीवनमें भी ऐसी घटनायें घटित हुईं थीं जिनका जिक्र इस शोधप्रबन्धमें अन्यत्र किया ही है । श्रीआनंदघनजी म. और श्रीआत्मानंदजी म. मध्य-तुल्यातुल्यताः-(१) प्रथम दृष्टिमें ही उन दोनों महानुभावोंमें नामसे ही तुल्यता हमें प्रसन्नता प्रदान करती है । दोनोंके नाम आनंद, काम आनंद, दोनों है धाम आनंद-यथा-आनंघनजी म.के राग जयजयवंतीमें रचे गये अपने पदमें 'आनंदघन का जो गुंजन सुनायी देता है, वाकई आह्लादकारी है - “मेरे प्राण आनंदघन, तान आनंदघन मात आनंदघन, तात आनंदघन, गात आनंदघन, जात आनंदघन; राज आनंदघन, काज आनंदघन, साज आनंदघन, लाज आनंदघन; आभ आनंदघन, गाभ आनंदघन, नाभ आनंदघन, लाभ आनंदघन" .....३० श्रीआत्मानंदजी म.श्रीशंखेश्वर पार्श्वनाथ जिन सतवनमें गाते हैं (136) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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