Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 140
________________ उसके ज्ञाता द्वारा उससे परिचय प्राप्त करके तद्विषयक जानकारी प्राप्त कर लेते थे । उस पर चिंतनमनन परिशीलन करके सारासारके विवेकयुक्त समीक्षा भी करते थे, और निष्कर्ष रूपमें जैन मान्यता एवं सिद्धान्तोंके साथ तुलनात्मक रूपमें युक्तियुक्त वैज्ञानिक ढंगसे निरूपण करते थे । मथुराके कंकाली टीलेकी खुदाईसे प्राप्त जैनधर्मकी समृद्धि और गौरवको प्रसिद्ध करनेवाली हकीकतसे परिचित उन महानुभावको बौद्ध पुरातत्त्व संबंधी अनुसंधानौका बी ज्ञान था अपने 'अज्ञान तिमिर भास्कर ग्रन्थमें आपने लिखा है- अंग्रेजोने सांचीके स्तूपको खुदवाया, उसमेंसे मौद्गलायन और सारिपुत्रकी हकीकत निकली है, और उस डिब्बेके ऊपर इन दोनोंके नाम पालि अक्षरमें खुदे हुए हैं तत्पश्चात् जन कनिंगहामने मथुरामें श्री महावीरकी मूर्ति प्राप्त की, उसे 'इतिहास तिमिर नाशक के कर्ताने दो हजार वर्ष पुरानी मानी है इस तथ्यको गलत भ्रमणा सिद्ध करते हुए स्पष्टीकरण दिया है “श्री महावीरकी प्रतिमा पर लेख है वह पालि हर्फोमें हैं, जो ढ़ाई हज़ार वर्ष पहिलां जैनमतमें लिखी जाती थी अगर उनकी समझमें ऐसा होवे कि श्री महावीर अर्हतकी मूर्ति श्री महावीरसे पीछे बनी होवेगी इस वास्ते दो हज़ार वर्षके लगभग पुरानी है यह अनुमान गलत है क्योंकि श्री ऋषभदेवके बखतसे ही होनहार तीर्थकारांकी प्रतिमा बनानी शुरू हो गयी थीं ऐसा जैन शास्त्रमें लिखते हैं । इस कालमें भी राणीजीके उदयपुरमें भावि उत्सर्पिणीमें होनहार प्रथम पद्मनाभ तीर्थंकरकी मूर्ति व मंदिर विद्यमान हैं । अतः वह मूर्ति बहुत पुरानी है इस प्रकार हमें उनकी सूक्ष्म विवेचन शैलीका परिचय मिलता है। जैनधर्म विषयक अद्यतन समाचारोंसे भी वे वाकिफ होते रहते थे । जिसका ब्यौरा हमें इससे आगे भी इसी ग्रन्थमें स्थान स्थान पर मिलता है । בָּע” उनकी रचनाओंके तलस्पर्शी अध्ययनसे ज्ञात होता है कि अपनी कृतियोंको शब्ददेह देते वक्त भी उनके दिलमें अवश्य कई निश्चित धारणायें रहती होगी, जिनका जिक्र उन्होंने स्वयं भी कुछ स्थानों पर दिया है। यथा- 'अज्ञान तिमिर भास्कर' ग्रन्थ- प्रथम खंड श्री दयानंदजीके मुख्य ग्रन्थ 'सत्यार्थ प्रकाश' के प्रत्युत्तरमें: 'सम्यकत्त्व शल्योद्धार' ग्रन्थ स्थानकवासी साधु श्री जेठमलजीके 'समकितसार के प्रत्युत्तरमें 'चतुर्थ स्तुति निर्णय' ग्रन्थ श्री रत्नविजयजी और श्री धनविजयजीको तीन स्तुतिकी उत्सूत्र प्ररूपणाके प्रत्युत्तरमें, 'ईसाई मत - समीक्षा' ग्रन्थ 'जैन-मत समीक्षा के प्रत्युत्तरमें; 'चिकागो प्रश्नोत्तर' ग्रन्थ सर्व धर्म परिषद- चिकागो (अमरिका) की विनतीके उपलक्ष्य में उनको प्रेषित करने हेतु 'जैन तत्त्वादर्श' और 'तत्त्व निर्णय प्रासाद' संस्कृत- प्राकृत से अनभिज्ञ बाल जीवोंकी जिज्ञासा- पूर्ति हेतु और उन्हें जिनशासनके सिद्धान्तोंका परिचय करवानेके लिए: 'जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर' नूतन शिक्षा प्राप्त युवकोंको जैनधर्मका सामान्य परिचय प्राप्त करवाने के लिए; चौबीस जिन स्तवनावली' अपने शिष्यकी ईच्छा तृप्तिके कारण एवं विविध पूजा-स्तवन- सज्झाय- पदादिका आलेखन अंतरतममें विराजित भगवद् भक्तिके प्रस्फूटन स्वरूप की गई है, जिसमें कभी समर्पण भाव, कभी उलाहना तो कभी करुणा सभर परमात्म प्राप्तिका तलसाट, कभी सिद्धान्तोंका रहस्य तो कभी सुंदर वर्णनोंका चित्रण मिलता है । इन वैविध्यपूर्ण वाङ्मय निर्माणके अन्य प्रयोजनोका स्वरूप निम्नांकित हो सकता हैं, जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता । यथा - अन्य धर्मोकी तुलनामें जैनधर्मके सच्चे स्वरूपको उसकी सर्वोपरिताके साथ ऐतिहासिक आगमिक आदि प्रमाणों द्वारा वैज्ञानिक एवं आन्वेक्षिक दृष्टिसे सदाशयी अकाट्य तार्किकताके सहारे, उनसे अनभिज्ञोंके सम्मुख प्रस्तुत करना । तत्कालीन युगमें विश्वके जिज्ञासु पंड़ितोंमें, नाममात्रके विद्वानों द्वारा जैनधर्म विषयक बेबुनियाद प्रसारित की गई अनेक तरहकी गलतफहमियोंको उनके सत् एवं सत्य स्वरूपको प्रकट करके उन भ्रान्तियोंका नीरसन करना; साथ ही साथ जैनधर्म पर लगाये जानेवाले हास्यास्पद आक्षेपों तथा अन्यायी आक्रमणोंको युक्तियुक्त नय प्रमाणोंके अवलंबनसे खंड़ित करना उन असत्य अंधकारको सत्यके सूर्यप्रकाशसे विदार कर नष्ट करना निश्चय और व्यवहार मार्गकी दोनोंकी जीवनमें आवश्यकताको प्रतिपादित करना: मेकोलेकी अभिनव शिक्षा प्रणालीसे धर्म विमुख और उदंड या विश्रृंखल बने हुए युवावर्गको Jain Education International 115 ..... For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org

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