Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 145
________________ लेखमें इसके अतिरिक्त गुजरातके प्रखर साहित्यकार प्रह्लाद चंद्रशेखर दीवानजीका अभिप्राय भी महत्त्वपूर्ण है, साथमें अन्य अनेक विद्वानोंके विचारोंको प्रस्तुत करके इस अज्ञानमूलक मान्यताका नीरसन करनेका सफल प्रयत्न डॉ. शान्तिलाल शाहने श्री महावीर शासन पत्रिकामें किया है । जैन साहित्य परंपरामें चार अनुयोगाधारित रचनायें प्राप्त होती हैं, जिनमें चतुर्थ कथानुयोग अंतर्गत साधिक लक्ष प्रमाण कहानियाँ निरूपित की गईं हैं, जो भ. महावीर स्वामीके समयसे- २५०० वर्ष पूर्वसेऔर कईं तो इससे भी पूर्वके भ. श्री पार्श्वनाथजी और भ. श्री नेमिनाथजी आदि तीर्थंकारोंके समय से प्रवर्तमान हैं । कईं चरित्र कथायें लाखों वर्ष पूर्व अत्यन्त प्राचीनकालमें घटित हुईं-दर्शायी गईं हैं । उन्हींके आधार पर परवर्ती साहित्यकारोंने अपनी लेखिनियाँका कसब प्रदर्शित किया है। "जिनशासनके मूलागमों (पैंतालीस) में 'ज्ञाताधर्मकथा', 'उपासकदशा', 'अनुत्तरोववाइयो' आदिको द्वादशांगीके अंगभूत आगम रूप स्थान प्राप्त होनेसे कथा साहित्यको मानो प्राज्ञ पुरुषोंने उत्तम सौभाग्य प्रदान किया है । भव्यात्माओंके उपकारक अनुयोग चतुष्टयमें चतुर्थ अनुयोग-धर्मकथानुयोग अपना विशिष्ट स्थान रखता है । अत: जैन कथा साहित्य जैसा ठोस कथा साहित्य अन्यत्र दुलर्भ है*४ इस विषयमें विशेष संशोधन आवकार्य है । साहित्यिक रचनायें और रचयिताओंकी परंपरायें:-जैन साहित्यके प्रति दृष्टिक्षेप करने पर हमें आश्चर्यजनक रचनाओंकी प्राप्ति होती हैं । जैन परंपरामें ऐसे अनेक महापुरुष हुए जिन्होंने समाजमें धार्मिक प्रभावनाओंके साथ साथ साहित्यिक क्षेत्रमें भी अपना महद् योगदान दिया । जिनमें प्राचीन कालमें विशेषतया उल्लेखनीय हैं- जैनागमनिधि संरक्षक, देवर्द्धि गणि क्षमाश्रमण- (जिन्होंने क्षत-विक्षत आगमोंको चिरकाल पर्यंत स्थायी स्वरूप प्रदान हेतु श्रुतज्ञानको पुस्तकारूढ़ करके और करवाके भव्य साहित्यिक योगदान दिया); सरस्वती कंठाभरण श्रीमद् सिद्धसेन दिवाकर सुरीश्वरजी - ( जिन्होंने बत्तीस 'द्वात्रिंशिकायें', 'सन्मति तर्क', 'श्री कल्याण मंदिर स्तोत्र' आदि अनेक विद्वद्भोग्य साहित्यिक कृतियोंकी रचना की): श्री मानतुंग सूरीश्वरजी म. - ( जिन्होंने श्रीभक्तामर स्तोत्र, मुक्तिमंदिर, श्रीनमिउण ( भयहर) स्तोत्र आदि मंत्रगर्भित विशिष्ट काव्य-लक्षण युक्त रचनायें की); श्रीहरिभद्र सुरीश्वरजी - (जिन्होंने विभिन्न विषयक १४४४ ग्रन्थोंकी रचना करके अपना पांडित्य एवं प्रभुत्व सिद्ध किया है। नवांगी टीकाकार श्रीअभयदेव सूरि - ( जिन्होंने आगमों के नव अंग- उपांग आगमादिकी वृत्तियाँ- टीका, श्री हरिभद्र सुरीश्वरजीके प्रन्थोंकी टीकायें, प्रज्ञापना तृतीयपद संग्रहणी, जयतिहुअण स्तोत्र, पंच निर्ग्रथी प्रकरणादि एवं छ कर्मग्रन्थ सवृत्तिभाष्यादि ग्रन्थोंकी रचना की); कलिकाल सर्वज्ञ श्रीहेमचंद्राचार्य(जिन्होंने विविध ग्रन्थ स्थित सार्थ तीन कोटि श्लोक प्रमाण साहित्यकी रचना की); श्री आर्यरक्षितसूरिजी (जिन्होंने अंगोपांगके मूल आगम ग्रंथोंका विश्लेषण करके द्रव्यादि अनुयोग चतुष्टयकी व्यवस्था की, जिसका चतुर्थ अनुयोग कथानुयोग है। परवर्तीकालमें (मुगल शासकों के समयमें) ऐसे प्रभावकों में जगद्गुरु श्रीविजयहीर सुरीश्वरजी म. श्रीविजय सेनसुरीश्वरजी म. महामहोपाध्याय श्रीयशोविजयजी म. जैसे धुरंधर- महारथी-विद्वानोंसरस्वती पुत्रोंकी कलमके कमाल हमारे दृष्टिपथ पर आते हैं; तो श्री आनन्दघनजी, श्रीपद्मविजयजी, श्री वीरविजयजी, श्रीरूपविजयजी, श्रीचिदानंदजी आदि महाकवियों जैसी भक्ति परायण हस्तियोंके कलनिनादके मधुर अनुभवोंसे आत्मिक परितोष प्राप्त कर सकते हैं । तत्पश्चात् हिन्दी साहित्यके आधुनिक कालके कगार पर नज़र फैलायें तो दर्शित होता है, चिहुं ओरसे त्रास- पीडा और आतंकमें दबी-फंसी मानसिक चेतनाओंको उजागर करनेवाले एवं युगकी आवश्यकतानुसार जन-जीवनमें जागृतिके बिगुल बजानेवाली सुधारक विचारधाराके प्रवाहक महापुरुष- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और श्रीदयानंद सरस्वतीजीके समकालीन दृढ मनोडली, निश्चयात्मक लक्ष्य सिद्धि हेतु अप्रतिम अध्यवसायी, प्रकांड पांडित्य युक्त विचक्षण विद्वद्वर्य श्री आत्मानंदजी महाराजजीका विशिष्ट व्यक्तित्व | - जैन शासनके इतिहासको अगर वाचा प्रदान की जाय तो उसकी सरगमके सूरमें हम सुन सकते हैं पुण्यवंत श्रमणवर्गके तीर्थंकर प्ररूपित सुविशुद्ध प्ररूपणाकी पहचान करानेवाली सुरीली झंकार; अगर उसे दृष्टि प्राप्त हो जाय तो दर्शित होगा उस दृष्टिसे दृष्ट उन भव्यात्माओंके तेजोमय अंतरात्माके Jain Education International 120 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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