Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 142
________________ कैसा मोड़ देना यथोचित होगा । उनके प्रभावशाली व्यक्तित्वके रंगका करतब अपना रंग जमा रहा था। जैन साहित्य के जैनधर्मके परंपरागत इतिहासके अमूल्य निधि से जन सामान्यकी अपरिचितता और अनभ्यस्तता स्पष्ट थे । उस धूमिल और धुंधले माहोलमें उन्होंने अपने संविज्ञ संयम जीवनके प्रथम ग्रंथराज जैन तत्त्वादर्श में उन बातोंको प्रकाशित किया। प्रथम परिच्छेदमें ही चौवीस तीर्थकरोंके विषयमें अनेकविध अवबोधका तालिका द्वारा बोध करवाया है, तो सप्तम परिच्छेदमें जैनधर्मके भौगोलिकादि अनेक विषयोंकी प्ररूपणाओं में की गई शंकाओंका उचित समाधान करते हुए जैन सिद्धान्तोंका पुस्तकारूढ होनेका वर्णनादि प्रस्तुत किया है । अंतिम एकादश और द्वादश- दोनों परिच्छेदमें भ. श्री ऋषभदेवसे भ. श्री महावीर स्वामी पर्यंत और भ. महावीर स्वामीके शासनकी पट्ट परंपराका सम्पूर्ण इतिहास प्रस्तुत किया है । "जैन मत वृक्ष" कृति पूर्ण रूपेण अपने आपमें एक अनूठी ऐतिहासिक रचना है जिसमें जैनधर्मका प्रारम्भ, प्रथमसे चरम तीर्थंकरोंका इतिवृत्त, जैनेतर दर्शनोंकी उत्पत्ति एवं व्याप्तिकी रूपरेखायें, त्रेसठ शलाका पुरुषोंके उल्लेख अनेक प्रभावक आचार्यों एवं महापुरुषोंकी विशिष्टतायें, भ.महावीरके शासनमें आर्य देशोंके शासक राजाओंकी परंपरा आदिका अनुपम चित्रण किया गया है । इस प्रकारके वृक्षाकार चित्रपट स्वरूपकी अनूठी कलात्मकताके कारण वह अपने आपमें अपूर्व एवं अद्वितीय कृति है । “ अज्ञान तिमिर भास्कर" के द्वितिय खंड़में भी जैनोंके प्राचीन इतिहासान्तर्गत सात कुलकरादिसे लेकर गुजरता हुआ इतिवृत्त श्री ऋषभदेव, उनके पुत्र द्वारा चार आर्यवेद रचना, परवर्तीकालीन मनःकल्पित नूतन वेद रचना मनुस्मृति आदि श्रुतियाँ- स्मृतियाँ- उपनिषदादि रचनाकाल वर्णन, हिंसक यक्षोंके प्रतिपादन करनेवाले वेदमंत्रोंके आविर्भाव तेईसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथजी भ.के पश्चात् मौद्गलायन सारिपुत्र- आनंदादिके उल्लेख करते हुए भ. महावीर पर्यंत पहुँचता है। भ. महावीर स्वामीके पूर्वके समय के धर्मशास्त्र न मिलनेसे जैनधर्म भ. महावीर जितना ही - २५०० वर्ष ही प्राचीन है इस मान्यताका नीरसन करनेके लिए पृ. १७४ में वे लिखते हैं "जैन तीर्थकर पूर्वजन्ममें बीस कृत्य ( बीस स्थानक तप) करनेसे 'तीर्थकर नामकर्म' नामक पुण्य प्रकृति उपार्जित करता है । उस पुण्य प्रकृतिके सुफल भोगनेके लिए तीर्थंकरके पुण्योदयवाले जन्ममें धर्मोपदेश द्वारा धर्मतीर्थ प्रवर्तन करते हैं। जब वर्तमान तीर्थकरका तीर्थ प्रवर्तमान होता है, तब उनके धर्मोपदेशानुसार शास्त्र-प्ररूपणा ( द्वादशांगी आधिकी रचना) होती है जिनमें सैद्धान्तिक तथ्योंमें पूर्व तीर्थंकरोंसे कोई भी मतभेद नहीं और पूर्वके तीर्थंकरोंके शास्त्रोंका समापन कर दिया जाता है । इस परंपराके कारण अनादिकालीन जैनधर्मके सिद्धान्त शास्त्र, केवल ढ़ाई हज़ार वर्ष ही प्राचीन प्राप्त होते हैं ।” इस प्रकार द्रव्यानुयोग और गणितानुयोगके सर्व विषय वे ही रहते हैं, केवल कथानुयोग और चरणकरणानुयोगमें वैविध्य पाया जाता है । 'तत्त्व निर्णय प्रासाद में भी पूर्वार्धमें पूर्वाचार्योंके संस्कृत ग्रन्थोंका सरल बालावबोध, वेद- स्मृति-पुराणादिमें निरूपित परस्पर विरोधी सृष्टि सर्जनकी की गई प्ररूपणाकी समीक्षा, वेदकी अपौरवेयताकी समीक्षा, गायत्री मंत्र के जैन-जैनेतर मताश्रयी अर्थ वैचित्र्य और जैन शास्त्राधारित सोलह संस्कार वर्णन किया है । लेकिन उत्तरार्धके अंतिम पांच स्तम्भों में जैनधर्मकी प्राचीनताकी सिद्धिके लिए वेदपाठ, वेदसंहिता, महाभारत पुराणआरण्यकादि धार्मिक ग्रन्थ एवं व्याकरण तर्कशास्त्रादि इतर ग्रन्थोंके उद्धरण जैनधर्मकी बौद्धधर्मसे प्राचीनता और स्वतंत्रता - आदिकी ऐतिहासिक प्रमाणों द्वारा सिद्धि की है जिसके अंतर्गत विशद साहित्यिक ग्रन्थ प्रमाणोंके अतिरिक्त आधुनिक संशोधनाधारित योरपीय विद्वानों हर्मन जेकोबी, मेक्समूलरादिकी रचनायें एवं मथुरादि स्थानोंकी खुदाईसे प्राप्त प्राचीन प्रतिमाओं पर लिखे शिलालेख-ताड़पत्रीय ग्रन्थोंके प्रमाण तत्कालीन वर्तमानपत्र पत्रिकायें आदिके लेखोंको समाहित किया जा सकता है। चौतीसवें स्तम्भमें बाबू शिवप्रसाद सितारे हिंद-जैसे मेकोले शिक्षणप्राप्त आधुनिक पंडितोंके मनमें जैन शास्त्रोंमें वर्णित प्राचीनतर कालकी विशिष्ट बातेंमनुष्यकी ऊँचाई आयु-बुद्धि-बलादिकी उत्कृष्टता, जैन भूगोलानुसार वर्तमान भूगोलकी असमंजसता पृथ्वी सूर्यचंद्रादि खगोल विषयक प्ररूपणायें आदि के बारेमें जो शंकायें मचल रहीं थीं, उनका भी पृ. ६२५ से ६३५ तक विस्तृत भूस्तर शास्त्रीय संशोधन ( जमीनकी खुदाईसे प्राप्त कुछ अस्थि पिंजरादि), पत्र-पत्रिकाओंके लेख, Jain Education International . " 117 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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