Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 126
________________ जीर्णोद्धार करवाया । कई जिनबिम्बोंकी प्रतिष्ठा की; और संगीताधारित काव्यमय पूजायें रचकर प्रतिमा पूजनमें रुचि पैदा की ।२९. यह बिलकुल स्वाभाविक ही है कि जिस सत्य संशोधनके पीछे अपना जीवन पूर्ण रूपसे समर्पित किया-उस सत्यके-मूर्तिपूजाके प्रचार, प्रसार और प्रवर्धनमें भी सर्वस्व ही समर्पित कर दें । जैनधर्मी समाजके लिए यह उनका महत्तम योगदान था । "A large scale to celebrate the Centenary of the birth of Shree Atmaramji M. S. in gratitude of the good, he did to humanity and the benefits he confferred on Jain community by bringing to light the hidden treasures of Jain literature and laying strong and deep foundation of reforms, promulgation of Jainism far and wide."30 जैनधर्मके अति महत्त्वाकांक्षी सुरीश्वरजीके हृदयकमलमें, जैनधर्मकी उत्तमोत्तम योग्यताके अनुरूप उसके विश्वस्तरीय प्रचार-प्रसारके व्यापका गुंजन निरंतर होता रहता था, और उसे मूर्त रूप देनेके लिए अनेकविधभरसक प्रयास कर रहे थे; जिसके अंतर्गत विश्वोपयोगी तात्त्विक सारभूत सैद्धान्तिक प्ररूपणायुक्त ग्रन्थ रचनायें, कई योरपीय-अमरिकी-जमनादि विदेशी विद्वानोंकी सैद्धान्तिक या अन्य प्रकारकी समस्याओंका या शंकाओंका समाधान पत्र द्वारा, या परस्पर चर्चा स्वरूपमें करना, विश्व-धर्म-परिषदमें श्रीयुत वीरचंदजी गांधीको, अधिकांश जैन समाजके विरोधके प्रत्युत, चिकागो भेजकर विदेशमें जैनधर्म विषयक भ्रामक एवं गलत प्रचार जालका विराम करवाना-आदि दृष्टिगोचर होते हैं । “जर्मन अमरिका तक फैला तेरा कीर्ति वितान । विद्वत्ता पर मुग्ध हो गए होर्नले से विद्वान ॥" “सत्य धर्मनो फेलावो ए तेमनी अंतरेच्छा हती ।"..... “महाराजश्रीनी ए दीर्धदर्शिताए पाश्चिमात्यः प्रजामां जैनधर्म प्रत्ये जिज्ञासा जन्मावी "..... "स्वामी विवेकानंद जेम वेदान्तनी फिलसूफीने प्रकाशमां लावनार हता तेम जैनदर्शननां सिद्धान्तो रजु करनार तरीके मर्तुम वीरचंदभाईने मोकलवामां श्रीमद् आत्मारामजी म.सा. निमित्तभूत हतां ।३१. जैन शासनमें साधु और श्रावक-उपलक्षणसे साध्वी और श्राविका भी-को आत्मकल्याणके लिए आचरणीय, आराधनीय, और साधनीय-आचार एवं आराधनाओंका भी उन्होंने अपने ग्रन्थोंमं विश्लेषण युक्त विवरण दिया है, जिसके अंतर्गत चतुर्विध संघको सम्यक्त्व सहित देशविरति या सर्वविरतिधर्म कैसे उपास्य है, और सुखशांतिसे निर्दोष जीवनयापन और परंपरा मोक्षसाधन है, दर्शाये हैं । "Another important reform, he undertook, was to improve the character of Sadhu as well as laymen. He purified the order of monks and urged them to aquire knowledge."३२ ...... “जन्म-मरणादि संसार भ्रमण रूप दुःखसे छूटने वास्ते साधु और श्रावकको पूर्वोक्त धर्म (देशविरति और सर्वविरति) करना चाहिए ।"३३ एक जैन साधुत्व अंगीकृत व्यक्ति जिस कोटिके उपकार कर सकती है, ठीक वैसे ही श्रीमद् आत्मानंदजीम.सा.ने भी धार्मिक दृष्टि बिंदुसे यथाशक्य उपाय करके जैनधर्मी समाजकी गहरी निंद भगाकर उसे जागृत करनेमें महद् योगदान किया था । दार्शनिक:--जैन दर्शनके स्याद्वाद, अनेकान्तवाद, कर्मवाद, षद्रव्य, नवतत्त्व, चौदह राजलोक, चौदहगुणस्थानक स्वरूप - आदि प्रायः सर्व दार्शनिक सिद्धान्तोंका आचार्य प्रवरश्रीने अपने ग्रन्थोंमें विस्तृत रूपसे वर्णन किया है। नवतत्त्वके लिए तो स्वतंत्र ग्रन्थका ही निर्माण किया है, तो कर्म स्वरूपादिका विवेचन जैन तत्त्वादर्श, तत्त्व निर्णय प्रासाद, चिकागो प्रश्नोत्तर, जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर, आदि ग्रन्थोंमें विभिन्न परिप्रेक्ष्यमें किया गया है- “जैन सिद्धान्तोना जिज्ञासुने आ एक ज ग्रन्थमांथी (जैन तत्त्वादर्श) एटली सामग्री पूरी पड़े छे के तेमांथी तेने जैन दर्शननुं सारामां सारं सर्वोत्कृष्ट दर्शन थई शके छे ते निःसंदेह छे..... आ प्रवीण ग्रन्थकारे आखा विश्वनी प्रवृत्तिथी सिद्ध करी बताव्युं छे के आर्हत् धर्मनी भावना पुरातनी छे ने ईतरवादियोना धर्मनी भावनानुं स्वरूप खुल्लुं करी जैनधर्मनां तत्त्वो सर्वोपरि होवानुं साबित करी आप्युं छे..... 'ईसाई-मत-समीक्षा' मां (1010 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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