Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 133
________________ है, शास्त्र भंडार मौजूद है, किंतु अफसोस, लाभ उठानेवाला कोई नहीं.....सबको साथ मिलकर जैन साहित्यकी रक्षा करनी चाहिए, पाठशालायें खोलनी चाहिए, जिनसे नवयुवक शिक्षा प्राप्त कर सकें । क्या ही अच्छा हों कि व्यर्थमें पड़ी संपत्ति मंदिरोंके जीर्णोद्धार तथा शिक्षा-प्रचार में लगायी जायें ।५४ शिक्षागटि-संजिवनी बूटी-व्यक्तिको अमरता प्रदान करती है । यही कारण है कि मानव-बालको जीवनके प्रभातकालमें इल्मके आदित्यके प्रकाशसे देदीप्यमान-कान्तिवान् बनाना आवश्यक माना गया है । शिक्षासे ही विवेक-चक्षुओंका उद्घाटन होनेसे विचारशील विश्वके आलोकित प्रांगणमें शिक्षित मानव स्व-पर, शुभंकर-आत्म कल्याणके साथ-साथ अखिल विश्वकल्याणके लिए कदम उठा सकता है । यह स्वीकार्य है कि उनके रूप विभिन्न हो सकते हैं, लेकिन उसके मूल अस्तित्वका इन्कार नहीं किया जा सकता । अथवा ऐसा इन्कार करना यह भारतीय संस्कृतिके साथ सरासर अन्याय है । मि. हंटरके शब्दों पर गौर करें - “इतिहासके सभी युगोमें भारतवर्षमें राज्य प्रबन्ध अथवा राज्यकी सहायताके बिना ही किसी न किसी प्रकारकी लोकप्रिय शिक्षा-विधिका प्रचार था । भारतीयोंने मौखिक परंपरा और हस्तलिखित शास्त्रों द्वारा विश्वमें अद्वितीय और उच्च कोटिके साहित्यको सुरक्षित रखा । ..... शिक्षा प्रचारका कार्यभार प्रायः लोगोंके कंधों पर ही था।"५५ अध्ययन अद्वितीय आर्ट है । शिल्पी (अध्यापक) के कुशल हाथों छैनीके कसबका कमाल होता है कि वह कुरूप-अनघड़ पत्थर (निरक्षर बालक), शिक्षाकी सुंदरता प्राप्त होनेसे स्वरूपवान् प्रतिमाकी सुरतसे सजकर समाजके नयनोंका कल्याणकारी तारक बन जाता है । “वस्तुतः सच्ची शिक्षा ही एक ऐसा अमोध अस्त्र है, जिससे बौद्धिक दासता और नैतिक भ्रष्टाचार दूर किये जा सकते हैं । मुमुक्षु, ज्ञानपथका पथिक बनकर ही भौतिक बंधन तोड़ सकता है ।५६ श्री आत्मानंदजीम.सा.के अभिप्रायसे साधु संस्थामें व्याप्त शिथिलाचार भी इसी अज्ञानताका कटु परिपाक है । शास्त्र विहित पांच प्रहरके स्वाध्यायके प्रति व्यग्रचित्त, आगमाध्ययनसे विमुख, षट्दर्शनादिकी अभिज्ञतामें उदासीन-ये साधु जैनाचारके अमूल्य सिद्धान्तोंसे अज्ञात और जैनेतर । अनभिज्ञ रह जाते हैं। उनके प्रमादाचरणसे वे समाजके लिए भारभूत बन बैठते हैं । कभी कभी उनका यहाँ तक पतन हो जाता है कि चारित्रसे भी पतीत हो जाते हैं । उनको रोकनेका फर्ज़-सही राह पर लानेका कर्तव्य साधुओं (गुरुओं के साथ साथ गंभीर-समझदार गृहस्थका भी है । लेकिन उन आचारव्यवहारके नियमोंसे अज्ञात साधु व श्रावक समाज यह कर्तव्यपालन कैसे कर सकता है ? अतः ऐसे शिक्षा-प्रचारकी ही महती आवश्यकता है । लेकिन तत्कालीन शैक्षणिक परिबलके व्यापने इस कर्तव्य पालनकी राहको श्रावकोंके लिए अत्यधिक दुर्गम बना दिया है । ब्रिटिश राज्यकालमें मेकोलेकी शिक्षण-प्रणालीने धार्मिक-आचार-विचार-व्यवहार-समस्तको छिन्नभिन्न कर दिया है। मानो उनका अस्तित्व ही नेस्तनाबूद होने चला है । अतिरिक्त ईसाई धर्मके अन्य सभी धर्मोको निर्माल्य-अनघड़-बर्बर; और साहित्यको कल्पना तरंगोकी गपसप या स्वप्निल-पौराणिक कहानियाँ प्रमाणित करनेकी भरसक कोशिशें हुईं । उन पाश्चात्यों द्वारा पौर्वात्य-जो कुछ भी है पुराना-कुत्सित और संस्कारहीन माना गया । आत्मा-परमात्मा-धर्म-कर्म-पुनर्जन्म-प्रतिमापूजन आदिको केवल अर्थशून्य बकवास घोषित किया गया। उन पाश्चात्य संस्कारोंके कारण अश्रद्धा और नास्तिकताकी आंधी एवं स्छंदता-स्वार्थ-उच्छंखलताके तुफानोंने आध्यात्मिकता युक्त पौर्वात्य धार्मिकताका ध्वंस कर दिया । इस शिक्षणविधिने भारतीयोंका दिमाग उलटा दिया । हितचिंतक गुरुवर श्री आत्मानंदजी म.के शब्दोमें -“विदित होवे कि संप्रतिकालमें कितनेक लोग सांसारिक विद्याका अभ्यास करके अपने आपको सर्वसे अधिक अकलवंत मानने लग जाते हैं..... और कितनेक तो नास्तिक ही बन जाते हैं।"५७ ऐसे शिक्षणका अन्यथा और परिणाम क्या हो सकता है, जब उनकी नीति ही गुलामोत्पादनकी थी! ई.स. १८३६में मेकोलेके, अपने पिताको लिखे हुए एक पत्रमें इसके आसार प्राप्त होते हैं- “हमारी शिक्षाका हिन्दूओं पर आश्चर्योत्पादक असर हुआ है, और कोई भी हिन्दू, जिसने इस शिक्षाको ग्रहण किया है, (108) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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