Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 111
________________ हमारा जीवन है; क्योंकि यह हम सबका अनुभव है कि अत्यन्त शुष्क-नीरस जीवनको संगीतके सहारे प्रफुल्लित एवं प्रसन्न बानाया जा सकता है, अथवा भयंकर तप्त वैशाखी दोपहरीमें नीमके पेड़के नीचे बैठकर सारंग राग गाने-बजानेसे अनुपम-अद्भूत शीतलताका अनुभव होता हैं; या मेघ मल्हार राग गाने-बजानेसे बिन बादल वर्षारानीका आगमन करवाया जा सकता है। तो दिपक-रागसे बिना किसी तीली आदिकी सहायता अपने आप ही दीप प्रज्वलित किये जा सकते हैं । ऐसे ही अनेक राग-रागिनियोंके अनुभव प्रत्यक्ष हैं । किसी भी रागका रंग तब खिलता है जब वह स्वयोग्य वातावरण निष्पन्न कर दें, तभी उसका महत्त्व और प्रभाविकता वर्धमान बनते हैं । यह साधारण-सा प्राथमिक परिचय ही संगीतके साथ जीवनका घनिष्ठ सम्बन्ध प्रस्तुत करता है । मानव तो क्या निसर्गकी गोदमें खेलने और पलनेवाले पशु-पक्षी भी इससे प्रभावित बनकर तन-मनकी सुध-बुध गँवाते दृष्टिगत होते हैं । हमारा यह भी दैनिक अनुभव हैं कि प्रकृति भी संगीतके प्रभावसे अभिभूत होती है । अतः जीव या जड़ सभी संगीतकी प्रभविष्णुतासे वेष्टित है। रुदनको हास्यमें या हास्यको शोकमें परिवर्तित करना-शुष्कको सरस और मौनको मुखर बनानासंगीतका निजी सामर्थ्य है । अतएव सहृदयोंके जीवनमें संगीतकी कशीश विशेषतया दृष्टिगोचर होती है। उनके विचार-वाणी-वर्तनमें, सर्वत्र-सर्वदा संगीतात्मकता समाविष्ट रहना अत्यन्त स्वाभाविक __ श्रीमद् विजयानंद सुरीश्वरजी म.सा.भी एक ऐसे व्यक्तित्वसे सम्पन्न थे, जिनमें हम इन विशिष्टताओंको झलकती हुई प्रत्यक्ष कर सकते हैं। उनके कंठसे बहनेवाली हवा सांगितिक झंकारसे युक्त रहती थी । जैसे प्रत्येक स्वरके प्रस्फुटनमें प्रकट होती थी तालबद्ध सुरीली स्वरावलि, जो श्रोताके दिल-दिमागको डोलायमान करानेके लिए पर्याप्त होती थी। उनके विचार और वाणी जैसे संगीतके लय और तालसे परस्पर सम्बन्धित स्पर्धा करते थे; अर्थात् उनके अंतस्तलसे विचार लयात्मक और जबानसे वाणी तालबद्ध रूपमें प्रकट होती थी । जैसे परमात्माकी गिरा प्रमुख रूपसे 'मालकौश' रागमें प्रवाहित होती है। ठीक उसी प्रकार उनके देशना प्रवाहमें 'भैरवी'की मधुर लय झिलमिलाती हुई श्रोताओंको अत्यन्त प्रमोदित करती थीं । एक ही सम-सूरमें तालबद्ध शाब्दिक स्वर, लयबद्ध नर्तन करते हुए कर्णपटल पर कब्जा जमा देते थे । एक बार देशना श्रवण करनेवाला सहृदय श्रोता बारबार आपके सुरीले स्वर सुननेका लालची बन बैठता था । आपके कंठसे निकलनेवाला गहन गंभीर स्वर समुद्रगर्जन या मेघगर्जनका सानी होता था । किसी प्रसिद्ध उस्ताद गायकने भी एक बार आपकी ऐसी सुरीली गंभीर स्वर लहरी पर आफरिन होकर अत्यंत आश्चर्य मिश्रित आवाज़में प्रशंसा करते हुए कहा, “महाराज ! आप तो संगीत कला-पारगामी हैं । आप तो उस्तादके भी उस्ताद हैं।"१०४ अतएव हमें प्रश्न उठता है कि ऐसी संगीत साधना उन्होंने कब, कहाँ और किनसे प्राप्त की होगी ? श्री फतेहचंद झवेरभाई शाहके शब्दोंमें, “श्रीमद् आत्मारामजी महाराजने इस संगीतकलाको पंजाबमें किसी उपाश्रयके समीपस्थ संगीत निष्णात-उस्तादके मकानसे सुनाई देनेवाले आलाप-आरोह-अवरोहादि सुनने मात्रसे ही संपादित की थी, जिसके आधार पर पद, स्तवन, पूजादि सभी प्रकार के भक्ति-भावयुक्त संगीतकी लहरियों में जैनदर्शनके विशाल-गंभीर ज्ञानको सहज एवं सरल रूपमें प्रस्तुत किया।"१०५ सहृदय कविराजके काव्योमें आत्मीय मस्ती और भरपूर पद लालित्यसे झंकृत सुरावलि, हृदयोर्मिको जागृत करके रोमराजीको विकस्वर कर देती है या, जो अनिर्वाच्य सुखका अनुभव कराती है एवं जो रससिद्ध नैसर्गिक कृतियोंकी मर्मस्पर्शिता और गुण सम्पन्नता प्राप्त है, हमें लबालब भरे रस सरोवरमें स्नान करवानेकी शक्ति रखती हैं। उन रचनाओंको साजोंके साथ गाया-बजाया जाने पर प्रच्छन्न मंत्रमुग्धताका प्रभाव प्रगट हो उठता है, फलतः आनंदानुभूतिका अवधि हिलोरें लेने लगता (86) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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