Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 117
________________ कल्याणमयी बीनकी स्वरलहरी पर झूमनेवाले जैनधर्माधारित सैद्धान्तिक साहित्यको झंकृत किया है। तो प्रवचनोंमें बहनेवाले कर्मनिर्जराके अनेकविध प्रवाहोंसे, शून्य-जड़वादियोंकी आत्मिक धराको सिंचन करते हुए उन्हें नव पल्लवित किया । "Swami Atmaramji Maharaj was a Sage and Seer. He could see through his penetrative eyes, the danger ahead. His preachings created a revolution in the community and generated vital energy for many a useful work. His efforts led to the resuscitation of Jain religion, art and literature about which very little was known before him."3 एकमें अनेक-अनेकमें एक-उनका ‘एकमें अनेक और अनेकमें एक की तासीरवाला भव्य-विशद-वैविध्यपूर्ण साहित्य शोभनीय बन पड़ा है । उसमें अंतर्निहित उनके व्यक्तित्वके भिन्न-भिन्न स्वरूप दर्शनसे पाठकगण आश्चर्यान्वित हो जाते हैं । जैसे-कभी अनुभूत होती है साहसिकता तो कभी शासकताः कभी तार्किकता और कभी तात्त्विकता, कभी कठोर सैद्धान्तिकता और कभी काव्यकी कमनीय सौंदर्यता, कभी अहिंसा हेतु निर्भीक सहनशीलता तो कभी अन्याय विरुद्ध संघर्ष, कभी भारतीय सांस्कृतिक चेतनाके लिए रूढ़ि परम्पराके विरुद्ध बुलंद वाक्धाराका प्रवाह और कभी जन साधारणकी अज्ञानताके लिए आक्रोशयुक्त अभिव्यक्ति, कहीं अध्यात्मकी गूंज तो कहीं फकीरीकी आहलेक, कहीं विभाजित मानवताको एक जंजीरमें बांधनेवाली अनेकान्तिक दार्शनिकता तो कहीं प्रचंड़-प्रतापी-जातपाँतसे निर्मुक्त स्वैरविहारी-स्वतंत्र विचारधारा, कहीं विकसित वैराग्ययुक्त योगका अधिकार और कहीं वाणीके सामर्थ्यसे सत्यकी स्थापनाकी ललक, कहीं प्राचीन-प्रभाविक पूर्वावार्योंकी आभाका अवधार दर्शित होता है, तो कहीं नूतन अन्वेक्षणोंमें वेष्टित अनेक सिद्धान्तोंके संरक्षणकर्ताकी अर्वाचीनता-विचक्षणतीक्ष्ण दूरदेशीता प्रदर्शित होती है । जनसमाजको लाभ-इसके अतिरिक्त उनके प्रत्यक्ष परिचयमें आनेवाले दिगम्बर-श्वेताम्बर-स्थानकवासी: थियोसोफिस्टवेदान्ती-आर्यसमाजी-ब्रह्मसमाजी: मुस्लिम-शीख-ईसाई आदि किसी भी धर्म-जाति-पंथ-कौम-देश या राष्ट्रका व्यक्ति हों; अपने मनकी अनेकविध बौद्धिक-तार्किक-शास्त्रीय-आध्यात्मिक-धार्मिक-नैतिक आर्थिक-सांसारिक विषयक शंकासंशय-समस्याओंका संतोषप्रद-मनभावन समाधान पाकर निहाल हो जाता था । जंगली भील-डालू हो या अनपढ़ आहिर; साहित्यका शिरताज़ हों या सल्तनतका-गुरुदेव सभीको समान रूपसे प्रेमका प्याला पीलाकर तृप्त करते थे, स्नेहकी सरवाणीमें स्नान करवाकर शांत एवं शुद्ध बनाते थे । परिणामतः इन हृदयस्पर्शी कल्याण कामनाके भावोंसे सर्वके दिल बाग-बाग हो जाते थे । विशेष रूपमें हिन्दु-जैन-बौद्ध धर्मोके तात्त्विक भेदोंको निरुपित करनेके साथ ही साथ अनेकान्तके सहारे उनकी-परस्परकी विसंवादिताको समन्वयमें पलटनेके अद्भूत मार्गको प्रशस्त करनेवाले समर्थ सुरीश्वरजी जन-समाजको बुलंदीका बिगुल बजाकर एकताकी शक्तिको समझाकर, मानवमात्रको मुक्तिमार्गके पथिक बननेका आह्वान करते हैं । इसीमें ही उनके हृदयकी मानवमानव प्रति अनुकंपाके दर्शन होते हैं । “वसुधैव कुटुम्बकम् की छलकती भावना दृष्टव्य है . “यह मेरा देश है, यह तुम्हारा-विचार, संकुचित हृदयवाले व्यक्तियोंके होते हैं ! उदारचेताओंके लिए सारा विश्व ही एक कुटुम्ब है ।" . श्री शशिभूषण शास्त्रीके विचारोंसे - “न्यायांभोनिधि श्रीमद्विजयानंद सुरीश्वरजीम.का जीवन-उनके विचार तथा आचरण बहुत उच्च प्रकारके दिखाई देते हैं ...... आप एक युगप्रवर्तक महापुरुष थे । साम्प्रदायिक संकीर्ण विचारोंका आपके विशाल हृदयमें वास नहीं था..... आपका उद्देश्य जीव-मात्रका कल्याण करना था । सार्वभौम जैनधर्मकी शिराओंको समस्त संसार में प्रचारित करना ही आपका ध्येय था । वे उन पथ प्रदर्शकोंमें से एक थे, जो समाज परिवर्तन और उन्नतिका मानचित्र स्थापित कर जाते हैं, जिसे संसारके मानवमात्रको कार्यान्वित करना है और स्व-पर--समस्तका कल्याण करना है । प्राचीनताके प्रेमी-पंच परमेष्ठिमें गुरुत्रयीके पदयोग्य-विशुद्ध साधु, सुविहित एवं कुल उपाध्याय प्रभाविक व C92 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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