Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 103
________________ व्यंग्य काव्यके भेद-प्रभेदोंकी उपलब्धि अभिभावकको काव्यानंद और प्रमुदित आत्मतोष प्रदान करने में कामयाब रही हैं । अब, संगीतात्मक-ध्वन्यात्मक प्रवृत्तियोंकी विवक्षाको लक्ष्य करके इनके काव्यकी आलोचना करनेका प्रयास करेंगे जो छंदप्रयोग, शब्दचयन, गेयता और राग-रागिणियोंकी नवाजिशसेअभिभूत हैं । छंद विधान :- “यदि वाक्य भाषाकी ईकाई है तो छंद वाक्यकी भंगिमा है ।” १०२ काव्य हमारे प्राणोंका संगीत है, तो छंद हमारे दिलोंकी धडकन या कंपन है । कवि पंतके शब्दोंमें -“(छंदसे) वाणीकी अनियंत्रित सांसे नियंत्रित-तालयुक्त हो जाती है, उसके स्वरोमें प्राणायम और रोओंमें स्फूर्ति आ जाती है ।"-अतः हम कह सकते हैं कि व्याकरण शास्त्रका अनुशासन गद्य पर चलता है, जबकि पद्यको शासित करता है पिंगल' या 'छंदशास्त्र'। छंद शास्त्रका प्रचार अति प्राचीन कालसे चला आ रहा है। अंतरकी अनुभूतियोंमें नादसौंदर्य उत्पन्न करने में महत्त्वपूर्ण योगदान छंदशास्त्रके नियमों का ही माना जाता है । वास्तवमें छंद और काव्यका रिश्ता प्राचीन है। भरतमुनिके 'नाट्यशास्त्र में छंदोंका विवेचन मिलता है, तो जैनाचार्य श्री हेमचंद्र सुरीश्वरजी म.सा.ने 'छंदोऽनुशासन' नामक ग्रन्थकी रचना करके उसके महत्त्वको सिद्ध कर दिया है । 'छद्' धातुमें 'असुत्' प्रत्यय जोडनेसे 'छन्द' शब्द बनता है । इससे 'छन्द का व्युत्पत्त्यार्थ होगा-प्रसन्नता, आह्लादन, आच्छादन या बन्धन; अर्थात् काव्यकी आत्माको आनन्ददायक साज सज्जा (आच्छादन) से जो सजाये उसे 'छंद' कह सकते हैं । लेकिन, 'छंदकी' शास्त्रीय परिभाषा इससे भिन्न रूपमें विभिन्न विद्वानोंने विभिन्न प्रकारसे दी है, जिसका तात्पर्य इस तरह निकल सकता है"ऐसी पदरचनाको-जिसमें चरण (पाद) मुख ध्वनि-वर्ण-मात्रा-गति-तुक आदिकी एक निश्चित व्यवस्था होंछंद कहलाती है ।" १०३ इस परिभाषानुसार छंदके लिए आवश्यक तत्त्वोंका उद्घाटन इस प्रकार होता है-(१) पाद या चरणोंकी और चरणान्तोंकी; मात्राओं तथा वर्णोंकी; निश्चित रूपमें एवं संख्यामेंनिश्चित व्यवस्था (२) गति, यति या विरामके नियमोंका पालन और (३) गणोंकी निश्चित व्यवस्था। अतः, काव्यमें छंदकी आवश्यकताको लेकर हम कह सकते हैं कि-A. छंद काव्यको आकर्षक, चिरस्मरणीय और लोकप्रिय बनाकर कविकी प्रतिभा एवं व्यक्तित्वको प्रदर्शित करते हैं: B. छंद काव्यमें भावकी संप्रेषणतामें वृद्धि करते हैं । C. छंद-काव्यमें लालित्य, श्रुति, मधुरता, कोमलता एवं लयात्मकताका संक्रमण करके काव्यको सजीवता बक्षते हैं D. छंद-काव्यमें गेयता प्रदान करते हैं । E. छंद योजनासे काव्य स्थित भावोमें एक-सूत्रता आनेसे छंद-रसानुभूतिमें सहयोगी बनते हैं F. छंद योजनासे अभिभावकको भाव ग्रहणकी सुगमता और काव्य कंठस्थ करनेकी सरलता प्राप्त होती है । G. छंद योजना द्वारा प्रभाविक रूपमें अभिव्यंजनासे भाववृद्धि होनेके कारण, काव्यमें अंतरंग सौंदर्य में वृद्धि होती है जो श्रोताको मनोरंजित करने में और उसकी रुचि परिष्कार करने में महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं । विद्वद्वर्यों द्वारा इन छंदोंको प्रमुख रूपसे दो भागोंमें विभाजित किया गया है-(१) वर्णिक या वृत्त छंद-जो संस्कृतकी देन है, और जिनमें वर्ण-संख्या, लघु-गुरु क्रम और गणोंका नियमित या निश्चित रूपमें प्रयोग होता है; और (२) मात्रिक या जाति छंद-जो प्राकृत और अपभ्रंशकी देन है और जिनमें मात्राकी संख्यादि नियमोंका पालन होता है । लघु-गुरुके क्रमकी जो अनियमिततावही मात्रिक छंदोकी विशिष्टता होती है । इन दोनों भागोंके तीन उपविभाग होते हैं-सम, अर्धसम और विषम । इनके और भी प्रभेद होते हैं-(१) बत्तीस मात्रा अथवा छब्बीस वर्णोंवाले एवं उससे कम मात्रा या वर्णोंवाले छंद-जो 'साधारण' कहलाते हैं और (२) दंडक-जो बत्तीस या छब्बीस मात्रा या वर्णसे अधिक मात्रा या वर्णवाले छंद । श्री आत्मानंदजीम.के पद्यमें छंदविधान- भक्तहृदय सूरिदेवने अपनी रचनाओमें-विशेषतः उपदेशात्मक रचनाओमें (78) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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