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रसफुहार बरसती है, वह रसमर्मज्ञ रसिक आत्माको उस रस सागरमें निमज्जन कराते हुए अंतरकी ऊर्मियोंको उछालती है। उसे दीन-दुनिया की विचित्र उपाधियोंसे मुक्त करवा कर मंत्रमुग्ध समाधिमें लीन कर देती हैं। ऐसी ही एक पूजा रचना, जो हमारे भौतिक-लौकिक दुन्यवी- मानसिक एवं कायिक विकारोंको भूलाकर अपूर्व, उदात आत्मानंदका अनुभव करवाती है जिसमें कवि चिघनानंद परमात्माके दर्शन पर वारवार वलिहारी प्रदर्शित करते है-कैसी है वह दर्शनानुभूति ! -
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"पंच वरण फूलों अंगीयां विकले ज्यं केसर क्यारी; कुंद, गुलाब, मरुक, अरविंदो, चंपक जाति मंदारी; सोवन जाति दगनक सोहे मन-तनु लजत बिकारी.... तुम विद्यनचंद आनंदलाल तोरे दर्शनकी बलिहारी.....१९४ लगता है हमारा तन-मन और आत्मा-सभी इस सुवासित अंगरचनाकी महकसे मानो प्रफुल्लित बन रहे हों और निजानंदकी मस्तीभरी मदहोशी में झूम रहे हों, हम भी न्योच्छावरी कर रहे हों। श्री जिनमंदिरके शिखर पर लहराकर जिनशासनकी शानकी संकेतिका-ध्वजा कैसी है ?
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“पंचवरण ध्वज शोभती, घूघरीको घमकार, हेमदंड मन मोहनी, लघु पताका सार ।।
रणझण करती नाचती, शोभित जिनघर शृंग, लहके पवन झकोर से, बाजत नाद अभंग।।” मस्तक लई, करे प्रदक्षिणा सार
उसकी पूजाके समय - “इन्द्राणी
सधवा तिम विधि साचवें, पाप निवारण हार" ६५
सुंदरी,
वह सुहागन ठुमरीमें ध्वनित-नाद सौंदर्य के
ध्वजको शिर पर लेकर हर्षातिरेक व्यक्त करती है, उसे पंजाबी ठेकाकी स्फुट स्वर और जिस शाब्दिक चित्रके साथ प्रस्तुत किया है वह अवर्णनीय है। इस ध्वनि-नादके साथ चित्रांकनका आहलाद तब आ सकता है जब उसके असली सूर-लय-तालके साथ उसे सुना जाय । तब हम महसूस करेंगे जैसे हमारी नजरोंके सामने ही वह सुहागन सुंदरीका मनमोहक स्वरूप नर्तन कर रहा हों।.....
" आयी सुंदर नार कर कर सिंगार, ठाड़ी चैत्य द्वार, मन मोदधार । प्रभुगुण विथार, अघ सब क्षय कीनो.... आयी....
जोजन उतंग अति सहस चंग, गई गगन लंघ, भवि हरख संग। सब जग उलंग पद छिनकमें लीनो...आयी......
जिम ध्वज उतंग, तिम पद अभंग, जिन भक्तिरंग, भवि मुक्तिमंग । चिद्धन आनंद, समता रस भीनो.... आयी ... १६५
ऐसा ही एक शब्द चित्र परमात्म-प्रतिभाके आभरणोंसे सजे हुए स्वरूपका है। सोनेमें सुहागेकी भाँति एक एक अलंकार जिनेश्वर देवके अंगकी शोभाको तो वृद्धिगत बनाता ही है, साथमें ग्रथन किये गये काव्यालंकार काव्यकी शोभाकी श्रीवृद्धि करते जाते हैं। अंततः जिणंदजीका मनमोहक बिम्ब तादृश- पूर्णरूपेण उभर आता है- “ आनंद कंद पूजतां जिणंदचंद हूं....
परिणामतः यह जिनबिम्ब आत्माके भाव उमंगकी वृद्धि करके
मोती ज्योति लाल हीर हंस अंक ज्यूं, कुंडलू, सुधार करण मुकुट धार तुं.... सुरचंद कुंडले शोभित कान दूं, अंगद कंठ कंठलो मुनींद तार तुं..... भाल तिलक चंग रंग खंग चंद ज्यूं, चमक दमक नंदनी कंदर्प जीत तुं..... व्यवहार भाष्य भाखीयो जिणंद बिम्ब युं, करे सिंगार फार कर्म जार जार तुं....” शुद्ध भाव प्रकट कर देते हैं“ वृद्धि भाव आतमा उमंग कार तुं, निमित्त शुद्ध भावका पियार कार तुं.... आनंद ....६६ जैन दर्शनमें परमात्माकी अनेक प्रकारसे भक्ति पूजाके स्वरूपोंको स्थान मिला है। कभी त्रिविध, कभी अष्टविध कहीं सत्रहभेदी तो कहीं इक्कीस प्रकारसे पूजा वर्णन मिलते हैं। कविश्रेष्ठ श्री आत्मानंदजीम ने भी इन विभिन्न रूपोंको काव्य रूप देनेका सफल प्रयत्न किया है। इन पूजा प्रकारोंमेंसे सत्रहभेदी पूजाके वर्णनमें सत्रहवें प्रकारकी पूजा होती है वाद्य पूजा इस पूजा गीतमें जिस अलौकिक स्वरूपको आश्चर्यकारी
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