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समुचित उपयोग करते हुए पदार्थके रूप-गुण, घटनायें, भाव या विचारों की प्रक्रियायें आदिको प्रत्यक्ष रूपमें इन्द्रिय ग्राह्य एवं विशेष संवेद्यतासे हृदयंगम बनानेका प्रयास करता है। कवि जिस वर्ण्य विषयको प्रस्तुत करनेके लिए जिस चित्रालेखन सदृश बिम्ब विधानका उपक्रम करके उसके मनोवैज्ञानिक पक्षको उद्घाटित करता है, वह काव्य-प्रतिभाकी सहज प्रक्रिया है। “अलंकार और बिम्ब-दोनों अप्रस्तुत योजनाको लेकर चलते हैं, लेकिन अलंकार उससे कलात्मक चमत्कार निष्पन्न करता है। जबकि बिम्ब उससे काव्यमें संप्रेषित प्रभाववृद्धि करता है ।"१८
इस काव्य प्रवृत्तिका केवल “बिम्बवाद' नामाभिधान पाश्चात्य साहित्यविदोंकी बक्षिस मानी जा सकती है। लेकिन इनसे पूर्व भी पौर्वात्य काव्य कृतियों में इनका प्रबन्ध प्राप्त होता है। संस्कृतप्राकृत या हिन्दी आदि किसी भी भाषाके किसी भी समयके उद्भावित सृजनमें हमें इस बिम्बविधान प्रवृत्तिका आस्वाद प्राप्त हो सकता है। प्रतीकों और बिम्बोंका निरूपण जितने जीवनके अंतरंग भावोंको लेकर हुआ है उतना वस्तुवादी रूपमें नहीं हुआ । फिर भी उन रचनाओमें उनका पर्याप्त एवं स्पष्ट चित्रण मिलता है । प्रतीक विधानमें अस्पष्टता-रहस्यमयता-संक्षिप्तता और प्रभावकी शिथिलता होती है, जबकि बिम्ब विधानमें वर्ण्य विषयका निश्चयात्मक-ठोस-स्पष्ट स्वरूप प्रकट होता है । साथ ही साथ चित्रात्मकताके कारण सहज संवेद्यता, प्रत्यक्षीकरणका अत्यन्त विवरित रूप, प्रभाव गांभीर्यसे भावोंको हृदयंगम करानेकी क्षमता होती है । अर्थात् “बिम्ब योजनाके प्रभावसे काव्यार्थका स्पष्टीकरण, वस्तु या घटनाका प्रत्यक्षीकरण भावोंका संप्रेषण या उत्तेजन और रूप या गुणोंका हृदयंगम कराना कविका लक्ष्य रहता है ।"१५ यहाँ सूक्ष्म अनुभूतियाँ अथवा गूढ या दुर्बोध-वैचारिक-कल्पनामय तथ्यों या भावोंको अप्रस्तुतों द्वारा रूपायित करके प्रभावशाली रूपमें स्पष्ट करनाः वर्ण्य विषयको उसके मूलरूप एवं सहज स्वरूपमेंजैसे कविने अनुभूत किया है वैसे ही-हमारे सामने प्रत्यक्ष करनाः भावों और अर्थों की जिस प्रमाणसे तीव्रानुभूति कविने की, वैसी ही तीव्रानुभूति सहृदयोंको करवाने हेतु भावोंकी संप्रेषणीयता या उत्तेजनाको उभारना; वर्ण्य विषयके प्रभाविक रूप-सौंदर्य और गुण चित्रणको ताजगीपूर्ण नव्यता प्रदान करना आदि हेतुओंको लेकर बिम्ब विधान करनेका कविका लक्ष्य माना गया है ।
'बिम्ब विधान के इस संक्षिप्त विवरणसे यह स्पष्ट होता है कि हमारे जीवनयापन या व्यापारके विभिन्न क्षेत्रोंसे बिम्बोंका चयन संभाव्य है, जिसे प्रायः इस प्रकार विश्लेषित कर सकते हैं-ऐन्द्रिय बिम्ब और मानस बिम्ब । ऐन्द्रिय बिम्ब पाँच इन्द्रियसे सम्बन्धित हो सकते हैं जबकि मानस बिम्ब मानसिक भाव और विचारोंसे आधारित रहते हैं। इनके अतिरिक्त व्यावहारिक, अनुभूतियों
और घटना तथ्योंसे भी बिम्ब-चयन होते रहते हैं। जिसके अंतर्गत व्यापारिक सांस्कृतिक, जीवन व्यवहाराधारित, जीवन आवश्यकताधारित, शृंगारिक, यांत्रिक या कृषिक आदि विभिन्न आधारों पर आधारित बिम्ब निर्वाचित हो सकते हैं।
इस 'बिम्ब विधान'की साज-सज्जा हमें श्री आत्मानंदजी म.की काव्य कृतियों में यथेष्ट रूपमें प्राप्त होती हैं-यथा-(१) चउगति-भ्रमण रूप घटना-तथ्याधारित बिम्ब-इस विश्वके चौदह राजलोकके चार गति रूप संसारमें आत्माका निरंतर परिभ्रमण अनादिकालसे चालू है-इस घटना तथ्यको कविराजश्रीने श्रीपार्श्वनाथजीके स्तवनमें इस तरह प्रतिबिम्बित करनेका प्रयत्न किया है
“शिवरमणी जादू डारा, जब पास जिणंद जुहारा...... तिर्यग् अमर नर नारक रूपमें सांग घरे अति भारा,मोहकी दोर बंधी गल तेरी,घटमें घोर अंधारा... शिव... कुमता रमण भर्म रस राच्यो, नाच्यो अनादि अपारा, माता उदरकूप रसकसमल, मनुष्य जन्ममें धारा...शिव.. किहां हसे ते नाथ निरंजन, हम ढूंढत जग सारा, घोघा मंडण सब दुःखखंडण, मिलियो प्रेम प्यारा.... शिव...”
ह.लि.स्त.८
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