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"ए सब मिलकर तीन सौ त्रेसठ मत हुए, ए सर्व मतधारी तथा इन मतोंके प्ररूपणेवाले सर्व कुगुरु हैं क्योंकि, ये सर्व मत मिथ्या दृष्टियोंके हैं । ये सब एकान्तवादी हैं और स्याद्वाद-अमृत स्वादसे रहित हैं ।१५३ कर्मबंधके कारणोंकी विवक्षा करते हुए लिखते हैं -“तीसरा कषाय बंध हेतु है । उनके सोलां कषाय, अरु नव नोकषाय मिलकर पचीस भेद हैं-अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ-ऐसे ही अप्रत्याख्यान क्रोधाधि चार, प्रत्याख्यान क्रोधादि चार, और संज्वलन क्रोधादि चार-एवं सोलह कषाय, इनके सहचारी नव नोकषाय हैं-उनका नाम कहते हैं-हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद । इन सर्वका व्याख्यान पीछे लिख आये हैं । इनसे कर्मका बंध होता है, यही संसार स्थितिका मूल कारण है।"५४
विश्व सृजनके लिए आपने “जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तर" में लिखा है-जगत तो प्रवाहसे अनादि चला आता है, किसीका मूलमें रचा हुआ नहीं है । काल, स्वभाव, नियति, कर्म, चेतनका पुरुषार्थ-आत्मा और जड़ पदार्थ-इनके सर्व अनादि नियमोंसे यह जगत विचित्र रूप प्रवाहसे चला हुआ उत्पाद-व्यय-ध्रुव रूपसे इसी तरे चला जायेगा ।५५ जैन धर्मकी प्राचीनताके विवेचनमें आप लिखते हैं –“मेरे मत मूजब जैसे प्राचीन बौद्ध, निर्ग्रथोंको एक अगत्यकी और पुरानी कोम तरीके जानते थे तैसे ही गोशालेने भी निर्ग्रथोंको बहुत अगत्यकी
और पुरानी कोम तरीके जानी हुई होनी चाहिए । इस मेरे मतकी तरफेण आखिर दलील है, जो बौद्धोंके मजिम निकायके पैंतीसवें प्रकरणमें बुद्ध और निर्ग्रथके पुत्र सच्चकके साथ हुई चर्चाकी बात लिखी हुई है । जब वह-नामांकित वादी, जिसका पिता निग्रंथ था, सो बुद्धके बखतमें हुआ, तव निग्रंथोंकी कोम बुद्धकी जिंदगीकी अंदर स्थापनेमें आई होवे, यह बन नहीं सकता ।"५६
उपरोक्त विभिन्न ग्रन्थोंके उद्धरणोंसे प्रतीत होता है कि आचार्य प्रवरश्रीकी भाषा बोलचालकी भाषा सदृश कहीं-कभी लड़खड़ाती, फिर भी निश्चित रूपसे अपने विकासपथ पर अग्रसर होती हुई परिनिष्ठ हिन्दीके रूपसे समीपस्थ स्थान प्राप्त करनेके लिए उपयुक्तता रखती है । साहित्यिक रचना शैलीके दृष्टिकोणसे विकासशील भाषामें गूढ-विवादग्रस्त-दुरूह-पेचीदा धार्मिक और दार्शनिक-सैद्धान्तिक विषयोंको, अत्यन्त धार्मिक लागणीशील जनसमूहके सम्मुख, उसके यथार्थ एवं सत्य रूपमें पेश करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है, जो विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्नताकी अपेक्षा रखता है । “इन सब बातोंके होने पर भी डॉक्टर साहबका मत है, कि उनकी भाषामें साहित्यिक भाषाके सब गुण विद्यमान हैं । इसमें सूक्ष्मसे सूक्ष्म और गूढ़से गूढ शास्त्रीय अर्थ प्रकट करनेकी पूर्ण क्षमता है । महाराजजीकी गद्य शैली अति गंभीर और परिवक्व है, जो शिथिलता, विषमतादि दोषोंसे रहित है ।"५७ आचार्य प्रवरश्रीकी हार्दिक अभिलाषा-राष्ट्रभाषा हिन्दी को 'सम्यक गिरा' बनाना-को उन्होंने स्वयं अभिव्यक्त करते हुए लिखा है
“यद्यापि बहुभिः पूर्वाचार्यः रचितानि विविध शास्त्राणि,
प्राकृत-संस्कृत भाषामयानि नयतर्कयुक्तानि; तदपि मयेदं शास्त्रं पूर्व मुनेः पद्धतिं समाश्रित्य,
भव्यजन बोधनार्थ रचितं 'सम्यक् स्वदेश गिरा; |"५८ इस प्रकार राष्ट्रभाषाके विकासमें पुरुषार्थशील श्री आत्मानंदजी म.सा.के श्लाघनीय प्रयत्नों के किये गये निरूपणकी पुष्टिकर्ता श्री रघुनंदन शास्त्रीका अभिमत भी प्रस्तुत हैं । “पंजाबमें हिन्दीके प्रसारमें जैनधर्मका कार्यभी विशेष रूपसे श्लाघनीय है । आचार्योने जैनधर्मका प्रचार विशेषतः हिन्दी द्वारा ही किया है । जैनधर्मके पचासों जीवनचरित्र, धार्मिक उपदेश, गीत, कविता, भजनादि हिन्दीमें प्रकाशित हुए हैं । इनके आचार्य श्री विजयानंद सूरि अथवा श्री आत्मानंदजीने बीसियों ग्रन्थ हिन्दीमें लिखे
ग्रन्थ रचनाओंका उद्देश्य (तत्कालीन समाजकी तकाजापूर्ति):-- सकलशास्त्र-पारगामी प्राज्ञके अभावयुक्त तत्कालीन भ्रान्तिजन्य अज्ञान और संभाव्य विकट-विषम एवं विषैली यथार्थ सामाजिक परिस्थितियोंके पर्यवेक्षक, प्राचीन-अर्वाचीन युगके सेतुबंध, जवामर्दजंगम आगमिक जनरेटर तुल्य, युगप्रभावक श्री आत्मानंदजी म.के लिए
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