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"शीतल जिनवर तार हो, तोरी सरण गही है वदन कमल सम जग मन मोहे, भांजत सकल विकार हो तोरी सरण गही है.... कल्पतरु तूं वंछित पूरे, चूरे करम करार....हो तोरी सरण गही है.... तुमरे चरणकी सरण लइ है, कर भवोदधि से पार....हो तोरी सरण गही है...
आतम आनंद चिद्घन मूरती, कामत फल दातार ....हो तोरी सरण ग्रही है....१(११) कवि-प्रवर श्रीआत्मानंदजीने कल्पनाके रंगोंके सहारे, सजीव चित्रमय सूक्ष्मतासे, उक्ति वैचित्र्य द्वारा, अनुप्रास अलंकारका ग्रंथन करते हुए आकाशमें बादल समान मदमाते यौवनका वर्णन ललितशैलीमें पेश किया है जो उपदेशात्मक होते हुए भी सानंदाश्चर्य प्रदाता है
“अधिक रसीले झीले सुखमें उमंग कीले आतम सरूप ढीले राजत जीहानमें, कमलवदन दीत सुंदर रदन सीत, कनकवरण नीत मोहे भद पानमें; रंग बदरंग लाल मुगता कनक जाल, पाग धरी भाल लाल राचे ताल तानमें,
छीनक तमासा करी सुपने सी रीत धरी, ऐसे वीरलाय जैसे वादर विहानमें ।” (१२) क्लिष्ट(विदग्ध)शैली-जैन दर्शनानुसार ध्यानके चार भेद माने गए हैं, आर्तध्यान-रौद्रध्यान (दोनों अशुभध्यान हैं); धर्मध्यान-शुक्लध्यान (दोनों शुभध्यान हैं)-इनमें से चतुर्थ शुक्लध्यानते चार प्रभेदोंमें स्थित आत्मा कौनसी लेश्या (अध्यवसाय या भाव)में वर्तती है उसे सांकेतिक रूपमें अत्यन्त संक्षेपमें निरूपित किया दोहा, 'विदग्धशैली'का उत्तम नमूना है
“प्रथम भेद दो शुक्ल्में, तीजा परम बखान।
लेखातीत चतुर्थ है, एही जिनमत वान।" (१३) जबकि इन्हीं ध्यान स्वरूप वर्णनान्तर्गत साधक, संतके परिसर, परिवेश व परिणामका प्रतीकात्मक वर्णन
“संत जन वणिग विरतमय महा पोत पत्तन अनूप तिहां मोख रूप जानीये, अवधि तारणहार समक बंधन डार ग्यान है करणधार, छिदर मिटानीये; तप वात वेग कर चलत विरागपंथ संकाकी तरंग न ते खोभ नहीं मानीये,
सील अंग रतन जतन करी सौदाभरी अवाबाध लाभ धरी मोख सौध ठानीये ।" (१४) उदात्त शैली- देवाधिदेव श्री तीर्थंकर भगवंतकी उमड़ते भावोल्लाससे झूमते देवलोकके देवताओंकी उत्साहयुक्त भक्तिका ओजगुण युक्त उदात्तशैलीमें कविराज श्री आत्मानंदजी म.सा.ने राग-खमाजमें जो वर्णन किया है बड़ा ही प्रभावशाली बन पड़ा है
“नाचत शक शक्री, हेरी माई नाचत शक्र शक्री छंछंछंछं छननननन नाचत शक्र शक्री....हेरी माई..... श्री, ह्री, धृति, कीर्ति, बुद्धि बहु बनी ठनी, इंद्र इंद्राणी करे नाटक संगीत धुनी।
जय जय जिन जग-तिमिर भानु तूं, चरण घुघरी छंछननननन ॥... नाचत....(१५) जबकि इसी-उदात-शैलीमें परमात्मा-सिद्धात्मा के समासबद्ध स्वरूप वर्णनमें भी अनूठे चमकार दर्शित होते हैं
“त्रिभागोन ही चरम देहसे, ज्ञानमय आतम केरा निरावरण ही ज्योति, निराबाधावगाहन विभु तेरा। सकल कर्म-मल दूर करीने, पूरण अड़-गुण ले संगी। स्व द्रव्य ही क्षेत्र-काल-स्वभावें, स्व-पर सत्ता गिन ज्ञानी। निज गुण ही अनंते-शक्ति-व्यक्ति कर मन मानी।।
निज आतम रूपे, अज-अमल-अखंडित सुख खानी।।........१६) व्यंग्य शैली-चटकीली और चुभीती एवं प्रखर बानीमें, मोह-मायामें मदमस्त आत्माको चेतावनीके सूरमें उसके फल स्वरूपको प्रभावोत्पादक रूपसे वर्णित किया है.
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