Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 71
________________ दीन, दैन्य, दुःख गर्ताके घोर अंधकार बीच भी परमात्माकी स्नेहासिक्त करुणाधारासे सिंचित भक्त हृदयका मान उसकी परम निष्ठाको प्रस्फुटित करता है "तुं महावीर गुरु मेरा रे, हुं बालक घेरा तेरा जिणंदा तोरे चरणकमलकी रे, हुं भक्ति करुं मन रंगे ज्युं कर्म सुभट सब भंगे, हुं बेसुं शिवपुर दंगें वीरजिन दाता रे, करो मुझ शाता रे, प्रभु तुं तारक मेरा करुणानिधि स्वामी मेरा हुं शासन मानुं तेरा... जिणंदा तोरे....४५) कविवर श्रीआत्मानंदजीग को नैसर्गिक रूपसे ही सिद्धकविके रूपमें हम अनुभूत करते हैं, जो काव्यका निर्माण करते नहीं, लेकिन लगता है उनके असीम भावयुक्त और भक्तिभरे दिलमें भरपूर भावोंके अनेक निर्झर कलकल निनाद कर रहें हों और बरबस फूटकर काव्यरूप बन जाते हों। उन रचनाओमें भक्त कविराजश्रीने वंदन पूजन-अर्चन करते हुए दास्यभक्ति व सख्यभक्ति दोनों पवस्योंका आलेखन किया है। आपकी इस सांगितिक स्वरलहरीके प्रवाहने कई मूर्तिभंजको उत्थापकोंको आत्मीय उत्तासयुक्त मूर्तिपूजानें लयलीन बनाये और परमात्मा पूजनमें अग्रसर किये आपकी रचनाओं में सर्वस्व समर्पित केवल कर्ममुक्ति-संसारकी सर्वश्रेष्ठ सिद्धिकी ही याचनाके स्वर कदम कदम पर सुनाई देते हैं। साथ ही साथ विश्वके विभिन्न धर्मोमें जैनधर्मका सर्वोच्च स्थान क्यों हैं इसे भी प्रदर्शित किया है “एक ही सूरज जग परगासे, तारप्रभा तिहां कौन गणंदा । ऐरावण सरिसो गज छंड़ी, लंबकरण मन चाह करंदा जिन छोडी मन अवर देवता, मूढ़ मति मन भाव धरंदा । कोई त्रिशूली चक्री फुन कोई, भामिनिके संग नाच करंदा । “शांत रूप तुम मूरति नीकी, देखत मुझ मन हुलसंदा । श्री श्रेयांस जिन अंतरजामी, जग विसरामी, त्रिभुवन चंदा.... (४०) जिस देव रूपका गुरु आतमने अनुभव किया दर्शन किया उसका सतत स्मरण, निरंतर रटणअंतस्तलमें गुंजनादिका अंकन भी मन मोहक बन पड़ा है: “ अनहद नाद बजे घट अंदर, तुंही तुंही तान उच्चारे रे श्री शंखेश्वर निज गुणरंगी....... “तेरो ही नाम रटत हुं निशदिन, अन्य आलंबन छारे रे। शरण पढ़येको पार उतारो, एसो विरुद तिहारे रे....श्री शंखेश्वर" २०१ “श्याम मेघ सम पासजी निरखी, आतम आनंद शिखी जिम हरखी। कर्त शब्द मुख पास तुंही तुंही, यही रटना रट लइ रे..... "7 (४२) अतः हम यह कह सकते हैं कि महाकवीश्वर श्रीआत्मानंदजीके काव्य भक्तिरससे लबालब भरे हैं क्योंकि वे भक्त पहले थे कवि बादमें। निर्मल भाव जल भरपूर मानससरमें 'आतम हंस' मुक्ति मौक्तिकका चारा चुगते हुए विहर रहा है। जिन भक्तिकी श्रेष्ठता भी इसीमें है जो जिनके साथ जन-जन और जीवमात्र के प्रति भी करुणाई दिलसे हमदर्द बनकर विश्व प्रेमका शंखनाद फूंके सुरीश्वरजीके दिलकी । गहराई में भी इन्हीं उच्च और श्रेष्ठ भावोंकी अवस्थितिकी झलकको श्रीदेवकुमार जैनने प्रदर्शित की है. "बेरीका उच्चार करो तुम देकर शुभ उपदेशः पापकार्य से सदा वयो सब, उरमें भक्ति जिनेश प्रेम सूत्रसे जगको बांधो, बनो उदार विशेष ॥ सादा रहन चलन भोजन हो, देशी वस्त्र अरु वेष । धर्म समाज देश सेवामें, हो मन लग्न हमेशा ।। हिन्दी राष्ट्रभाषा सब मानो, अहिंसा वीरादेश । सव विजयानंद आदेश" (५) भारतीय सुरीच्छा अंतिम, हो स्वतंत्र मम देश || सुनो आध्यात्मिक गांभीर्य (सैद्धान्तिक संकेत ):- जैनाकाशके ओजस्वी आदित्य श्री आत्मानंदजी म. केवल सत्यके उपासक थे। जीवन सत्य व आत्म सत्यका अनवरुद्ध अन्वेषण करते करते इन्होंने जिन आदर्शोंका Jain Education International 46 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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