Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 70
________________ अजर अमर प्रभु अलख निरंजन भंजन समर समर कहीये तुं अद्भूत योद्धा, मारके करम धार, जग जस लहीये.... अव्यय विभु ईश जगरंजन रूपरेखा विन तुं कहीये, शिव अचर अनंगी तारके जग जन, निज सत्ता लहीये..... आतम घटमें खोज पियारे, बाह्य भटकतो ना रहीये तुं अज अविनाशी धार निजरूप, आनंद घन रस लहीये......" (३१) इसके व्यतिरिक्त विभिन्न द्रव्यों एवं भावसे साकार रूप अरिहंत भगवंतकी भक्ति करते हुए महान फल स्वरूप संसार सागरसे तिरानेवाली अनेक तरंग लहरियाँ प्राप्त होती है “पूजा अष्ट प्रकारकी, अंग तीन चितधार; अग्र पंच मन मोदसे, करी तरिये संसार। न्हवण विलेपन सुमन वर, धूप दीप अति चंग; वर अक्षत नैवेद्य फल, जिन पूजन मन रंग।।".... (३२) ___मुमुक्षु भक्तजनोंके प्राणाधार श्रीपंचपरमेष्ठी एवं नवनिधान-दाता, नवधा-भक्तिके आलंबन श्रीनवपदजीमें समाहित सुदेव-सुगुरु सुधर्मकी भक्तिका स्वरूप भी दृष्टव्य है “देव धर्म गुरु तत्त्वकी, सहहणा परिणाम; सातों मिलके मिट गये, सम्यग् दर्शन नाम।" (३३) जैन दर्शनने योगको भी भक्तिकी एक धाराका रूप दिया है। इस योग साधनाके सालंबन और निरालंबन रूपके निरूपण भी आपके काव्योमें हुए हैं। “योग असंख ही जिनवर भाषित, नवपद मुख्य करी। कर अवलंबन भवि मन शुद्ध, कर्म जंजीर जरी।" (३४) परमात्माकी मन-वचन-कायाकी तद्रुपतायुक्त की गई अर्चना क्या रंग लाती है “ए नवपद शुद्ध अर्चन करके, निज घटमें हि धरी। चिदानंद घन सहज विलासी, भव बन दाह करी।।" (३५) “अरिहंत पद अर्चन करी चेतन, निज स्वरूपमें रम रहीये" अथवा “जिन अर्चन सुख दाना रे भविका जिन अर्चन सुखदाना...... आतम आनंद शिवपद रंगी, संगी सदा आधाना रे.....जिन (३६) भक्ति अखंड़ बहनेवाली सरिता है जो साध्य-समुद्र की ओर निरंतर गतिशील रहकर लक्ष्यको प्राप्त करती है। भक्ति अत्यन्त प्रकाशवान तेजपुंज है जो आत्म-ज्योतिको परमात्माके जाज्वल्यमान प्रकाश-ज्योतिमें विलय कराके शाश्वतता प्रदान करती है। लेकिन इस परम साध्यकी प्राप्तिके लिए भौतिक-लौकिक-पार्थिव कामनायें, वासानायें एवं भावनायें त्याग देनी चाहिए। इच्छाओं-अपेक्षाओंकी जंजीरें कर्ममुक्तिके इच्छुक आत्माके लिए बंधनकर्ता हैं। ये तृष्णायें भगवद् भक्तिसे ही विलीन हो सकती हैं और जीव परम विश्रामको प्राप्त हो सकता है। आचार्य प्रवरश्री ऐसी एकाग्रतापूर्ण समर्पित सेवाको सजीव करते हैं “मो मन तुम बिन कित ही न लागे, ज्यूं भामिनी वश कामी जनम जनम तुम पदकज सेवा, चाहुं मन विसरामी..... रंभा-रमण सुरिंदपद-चक्री, वांछु हुं नहीं निकामी, आतमराम आनंद रसपूरण, दे दरिसन सुखधामी।।" (३७) ऐसे ही परमात्माके साथ भेदाभेदताको चित्रित करते हुए गाते हैं "तुं है अचरवरा, मैं हुं चलनचरा, मुझे क्युं न बनाओ आप सरा? जब होश जरे, और साँग टरे, तुं और नहीं मैं और नहीं.... तुं है भूपवरा शंखेश खरा, मैं तो आतमराम आनंदभरा, तुम दरस करी, सब भ्रान्ति हरी, तुं और नहीं मैं और नहीं।” (३८) जगतकी अनुकंपा अंधकार फैलाती है जबकि जिणंदजीका अनुग्रह चिरंतन ज्योति जगाता है। विश्वके (45) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206