Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 64
________________ और गौड़ी शैली शब्द-वर्णोंसे सम्बन्धित है, तो पांचाली शैली अर्थाधारित रूपोमें प्रायः पायी जाती है। लेकिन आधुनिक कालमें विशेष रूपसे अवलोकन करते हुए हमें ज्ञात होता है कि हिन्दी भाषान्तर्गत उपरोक्त विवरणके अतिरिक्त शैलीका निश्चय वर्ण्यविषय, चरित्र चित्रण, परिस्थिति, भाव उद्देश्यादि द्वारा भी निश्चित किया जाता है। हिन्दी काव्यान्तर्गत हम शैलीको सरस, मधुर, ललित, विदग्ध, उदात्त तथा व्यंग्यादि-वर्गामें वर्गीकृत कर सकते हैं। सरस शैली-सरल, एवं सर्वजन सुगम, प्रसाद गुण सम्पन्न, भावानुसार शब्दावलिमें रसका निरूपण करनेवाली रमणीय शैली-'सरस शैली' कही जाती है। मधुरशैली-मधुर संगीतमय शब्दों द्वारा उपनागरिका वृत्तिके प्रयोगसे सुकुमार कोमल भावोंका वर्णन किया गया हों और कर्कश एवं भयानक प्रसंग वर्णन न हों-वह 'मधुर शैली' कही जाती है। ललित शैली-शब्दोंके कलात्मक प्रयोग द्वारा कल्पनाके रंगोसे चित्रात्मकता, वर्णनकी सूक्ष्म सजीवता, उक्ति चमत्कार, अलंकारितादिवाले काव्यमें 'ललित शैली' मानी जाती है। क्लिष्ट या विदग्ध शैली-जिस शैलीमें शब्दोंका सांकेतिक, लाक्षणिक, प्रतीकात्मक प्रयोग हों, गूढ़ अर्थ या क्लिष्ट कल्पनाकी प्रचुरता हों और जिसका भाव बिना व्याख्या अथवा टीकाके स्पष्ट न हों वह विदग्ध शैली कही जाती है। उदात्त शैली-ओज गुण सम्पन्न, वीरता-उत्साह-भयादि भावोंकी प्रेरक, दीर्घ समास एवं पदयुक्त संयुक्ताक्षर युक्त उत्तेजक शैलीको 'उदात्त शैली' नामसे पहचाना जाता है। व्यंग्य शैली-वाक्यमें शब्द प्रयोग तीखे प्रभावको व्यक्त करते हैं और उक्तिकी वक्रतासे कविका कथन श्रोता या पाठकके हृदयमें चूभ जाता है। अतः इसमें वाच्यार्थकी अपेक्षा व्यंग्यार्थ ही प्रधान होता है। इस तरह वक्रोक्ति रूपमें प्रस्तुत काव्य व्यंग्य शैलीका माना जाता है। शब्द और अर्थसे सम्बन्धित स्थूल मानदंडाधारित इन शैलियोंके इस वर्गीकरण अन्तर्गत हम महाकवि श्री आत्मानंदजीम के साहित्यको विश्लेषित करनेकी चेष्टा करते हैं। कविराज श्रीआत्मानंदजीके पद्य साहित्यमें हमें उपरोक्त सभी शैलियोंका स्वल्पाधिक रूपमें आनंद प्राप्त हो सकता हैं। यथा-सरस शैली--- "कारण निमित्त उजागर मेरो, सरण गहयो अब तेरो रे। भगत वछल प्रभु जगत उजेरो, तिमिर मोह हरो मेरो रे.... मनमोहन स्वामी। भगति तिहारी, मुज मन जागी, कुमति पंथ दियो त्यागी रे। आतम ज्ञान भानमति जागी, मुझ तुझ अंतर भागी रे....मनमोहन स्वामी।" (८) मोहकी मायाजालमें फंसे आत्माकी मलिनताका वर्णन सरल-सहज, सरस-शैलीमें करते हुए गाते हैं “मात तात तिरिया सुत भाई, तन धन तरुण नवीनो। ए सब मोह जालकी माया, इन संग भयो है मलीनो।” (१) मधुर शैली-श्री सिद्धाचल तीर्थकी स्पर्शना करनेसे पुण्याकुरका प्रकटीकरण-पाप समूहका पृथक्त्व एवं भवसमुद्र पार करके आत्मानंद प्राप्तिका सुंदर संगीतमयी सुकुमार शब्दावलिमें वर्णन, दृष्टव्य हैं "अरे कांइ नाभिनंदन चंद, अरे कांइ छेरी पाल जिन चंद। अरे काइ दूर होवे अघवृंद, अरे काइ प्रगटे नयनानंद।। व्हाला भवि जइयो विमलगिरि भेटवा। अरे कांइ मोटा पुण्य अंकुर, अरे काइ चिंता गइ सब दूर। अरे कांइ कुमत कदाग्रह चूर, अरे काइ आव्या नाथ हजूर....व्हाला भविअरे काइ मुझने मती तुं विसार, अरे कांइ धरम भरम सब छार। अरे कांइ आतम आनंदकार, अरे कांइ भवसागर पाया पार.....व्हाला भवि....१९१०) कल्पतरु श्री शीतलनाथ जिनेश्वरसे मनवांछित-भवपार-(मोक्ष)-पानेकी-कामना करते हुए याचते हैं (39) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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