Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 51
________________ उनके सूत्रधार नेतागण या धर्म गुरुओं द्वारा जो विचारधारायें या चिन्तन प्रवाह बहाया गया, उससे हिन्दी भाषाके गद्यको वैविध्यतापूर्ण, सुचारु रूपसे सिंचन मिला, जिनमें विशेष रूपसे उल्लेखनीय इस युगके प्रवर्तक श्री भारतेंदु हरिश्चंद्रजीके साथसाथ 'प्रेमघन', प्रतापनारायण मिश्र, अम्बिकादत्त व्यास, श्री दयानंदजी, राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद', नवीनचंद्र रोय पंजाबी', श्रद्धानंद फिल्लोरी आदि माने जाते हैं । इस प्रकार हम देख सकते हैं कि हिन्दीके विकासमें भौगोलिक (क्षेत्रिय), राजनैतिक और सामाजिक एवं धार्मिक परिबलोंके प्रभाव महत्त्वपूर्ण बने हुए हैं । इन्हीं प्रभावोंके अंतर्गत साहित्यिक भाषाकी शैलियाँ निश्चित हो सकती हैं । यहाँ शैलीका अभीष्टार्थ है- विचारों एवं भावनाओंकी साहित्यिक विन्यास प्रविधि, जिसे निम्नांकित प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है (१) भाषा प्रकाराधारित (२) संरचना प्रविधि (३) गुणगत । आचार्य प्रवर श्रीके साहित्यमें भाषा शैली वैविध्य--- (अन्य भाषाओंकी झलक)- श्री आत्मानंदजी म.सा.साहित्यकारसे पूर्व धार्मिक नेता थे और उससे भी पूर्व वे आत्मार्थी साधु थे-भगवद् भक्त थे ! अतः उनके साहित्यमें विविध शैलियोंके वैचित्र्यका संगुंफन सुंदर बेलबूटों सदृश दृष्टिगत होता है । जिनमें प्रमुख रूपसे भाषा प्रकाराधारित सधुक्कड़ी: संस्कृतनिष्ठ एवं अन्य बोलियोंसे प्रभावित तथा गुणगत-उपदेशात्मक, विवरणात्मक, प्रतिपादनात्मक, विश्लेषणात्मक, अनुवादात्मक, खंडनात्मक, सरल-मधुर-रमणीयता लिए प्रसादात्मकादि शैलियोंके प्रयोगोंका विहंगावलोकन करवाया जा रहा है। भाषा प्रकाराधारित- श्री आत्मानंदजी म.सा. जैन साधु होनेके नाते जैन साध्वाचारानुसार परिभ्रमणशील जीवन व्यतीत करते थे, परिणामतः आपकी वाणीमें खड़ी बोलीकी प्रधानता होने पर भी अनेक बोलियोंका प्रभाव झलकना सहज ही है । अतः उनकी भाषा अनेक बोलियोंसे मिश्र सधुक्कड़ी भाषा सदृश एवं तत्कालीन धर्म प्रचारकों और सामाजिक नेताओंके समरूप शैलीयुक्त, परिमार्जित होती जा रही, साहित्यके स्वरूपके स्थिरत्व हेतु प्रयत्नशील खड़ीबोली थी । “पूरानी हिन्दीमें बहुतसे रूप, बहुतसे प्रयोग, आपसमें टकरा रहे हैं और भाषा भागीरथीमें बहते-टकराते अपना रूप संवारते जाते हैं ।"४१ जिस पर ब्रज-अवधि, राजस्थानी-गुजराती-पंजाबी आदि भाषाओंके प्रभाव स्पष्ट ही परिलक्षित होते हैं । श्री आत्मानंदजी म.सा. संस्कृतके प्रखर विद्वान होनेसे भाषाके साहित्यिक रूप गठनमें बोलचालकी भाषाके समीपस्थ एवं साहित्यिक स्तर योग्य संस्कृत भाषा रूपोंके खुलकर प्रयोग प्राप्त होते हैं । इनके अतिरिक्त वे स्वयं पंजाबी होनेसे उनके साहित्यमें पंजाबी प्रयोगोंकी बहुलता और कभी कभी उर्दूपनका प्रभाव भी अवश्य प्राप्त होता है। निष्कर्ष रूपमें हम यह कह सकते हैं कि उनकी रचनाओमें पंजाबीपन लिए हुए, ब्रज-अवधि-राजस्थानीगुजरातीके प्रभावयुक्त प्राचीन हिन्दीके सभी लक्षण दृश्यमान होते हैं, जो तत्कालीन संवरती, सजती, परिमार्जित होती खड़ी बोलीमें हमें प्राप्त होते हैं । यथाकिया रूप- (१) भया, भये, भयी के साथ हुआ, हुई आदि अर्वाचीन प्रयोगोंकी बहुलता (२) 'नके स्थानमें 'ण'कार प्रयोग (३) सुनाय, बहाय, पिलाय, धराय, वसाय, जिमायके साथमें सुनाकर, बहाकर, पिलाकर, बसाकर आदिके प्रयोग (४) गावत, आवत, जावत, सोवतके साथ गाता, आता, जाता, सोता आदिके प्रयोग, (५) देवें, होवें आदिके साथ दें, हों आदिके प्रयोग (६) आवें, जावें, गावें, खावें के साथ नूतन आयें, जायें, गायें, खायें आदिके प्रयोग, (७) कर, घर, देख आदिके साथ नूतन प्रयोग करके, धरके, देखके, (८) दीजो, लीजो, कीजो आदिके साथ नूतन प्रयोग दीजिए, लीजिए, कीजिए, (९) धायें के साथ दौड़के-शब्द प्रयोग, (१०) 'आनके-के साथ 'आकर' के शब्द प्रयोग, (११) धसें-धसके के साथ घुसें, घुसके आदि रूप, (१२) संज्ञा रूपोंसे बननेवाले क्रिया रूपोंका प्रयोग-बखानना, स्नपन करना, कबूलना, निस्तारना, निषेधना, संकल्पना आदि, (१३) पद्यमें ब्रजभाषाके विशिष्ट प्रयोग निरखत, खेलावत, चितवत, बरनत, उपजत आदि; अव्यय रूप- कित, कहु, कछुक, कितेक, केतई, कबहु, टुक, सेती, तईं, ताई, एता, सोही (सम्मुख), बिन, एता, जौं लौ....... तौं लौं, जद-तद, जहाँ-तहाँ, जिन-तिन, जैसे-तैसे, अरू-औ (और), नाल आदि.... सर्वनाम रूप- उस्के, उस्से, उन्होंसे, उन्होंके, उनोंने, जिस्को, जिस्से, तिनसे, तिसके, तितने, तिन्होंने, तिनमें, (26) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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