Book Title: Vijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Author(s): Kiranyashashreeji
Publisher: Atmanand Jain Sabha

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Page 55
________________ भाषाकी सरलता- स्वभावतः भावाभिव्यंजनाके प्रमुख माध्यम-तत्कालीन भाषा द्वारा ही श्री आत्मानंदजी म.ने भी अपने अंतरके भावोंको प्रकट किया है । आपका लक्ष्य अपने अभिमतसे, धर्मभावनाओंसे, सामाजिक सुधारके स्वरूप आदिसे जन-जनको परिचित करना था, जिससे 'स्व के साथ 'पर के भी उपकारकी अभिलाषा सिद्ध हों । समाजोन्नतिमें सहयोग देनेमें समर्थ धार्मिक एवं दार्शनिक सिद्धान्तोंकी गूढता या दुरूहताको पाठकोंके मस्तिष्कका शृंगार बनाने हेतु, उन्होंने उस दुरूहताको सरल भाषामें संस्कारित करके अपने ग्रन्थोंमें निरूपित किया । उन ग्रंथोंके अवगाहक प्रत्येक स्तरके पाठकको प्रमुदित करनेकी क्षमता उनके ग्रन्थोंकी हैं । विशेषतः जो ग्रन्थ सामान्य जन एवं जैन समाजकी अभिज्ञता हेतु रचे गये हैं- जैन तत्त्वादर्श, तत्त्व निर्णय प्रासाद, अज्ञान तिमिर भास्कर, जैनधर्म विषयक प्रश्नोत्तरादिमें उनकी भाषाकी सरलताका परिचय प्राप्त होता है । कहीं कहीं दार्शनिक विषयोंकी गूढताके विश्लेषणमें, तद् विषयक पारिभाषिक शब्दोंके कारण श्लिष्ट प्रयोग हुए हैं जो विषयानुरूप होनेसे यथोचित ही भासित होते हैं, जिससे भाषाकी सौम्यता और संप्रेषणीयतामें किसी भी प्रकारका अवरोध नज़र नहीं आता है । परमात्माने "अहिंसा धर्म की प्ररूपणा किस प्रकार की है, उसे स्पष्ट करते हुए आप फर्माते हैं- “वेद हिंसक शास्त्र हैं । (यज्ञ) बिचारे बेगुनाह, अनाथ, अशरण, कंगाल, गरीब, कल्याणास्पद, ऐसे जीवोंको मारणा और मांसभक्षण करणा और उसे धर्म समझना यह मंद बुद्धियोंका काम है.....करुणारस भरे, सत्यशील करके संयुक्त, निहिंसक, तत्त्वबोधक, सर्व जीवांके हितकारक, पूर्वापर विरोध रहित, प्रमाण युक्ति सम्पन्न, अनेकान्त स्वरूप, ‘स्यात्' पद करी लांछित, परमार्थ और लौकिक व्यवहारसे अविरुद्ध-इत्यादि अनेक गुणालंकृत भगवान् अहंत परमेश्वरके वचन जो हैं, ये पूर्वोक्त लक्षण वेदोंमें नहीं हैं.....जो कोई ब्राह्मणादि दयाधर्म मानते हैं, और प्ररूपते हैं, वे वेदोंके विरोधी है, क्योंकि वेदोंमें दयाधर्मकी मुशक भी नहीं है । जेकर वेदोंमें अहिंसक धर्मकी महिमा होती तो (शंकरस्वामी) सौगतको काहेको कहते, 'अहिंसा कथं धर्मो भवितुमर्हति ?' अर्थात् अहिंसा कैसे धर्म हो सकता है, अपितु हिंसा ही धर्म हो सकता है । ४६. मोक्षमार्ग और संसारका स्वरूप वर्णन करते हुए आपने किया हुआ जिनाधीशके वचनोंका स्वरूप निरूपण इस प्रकार है- नवतत्त्वोंके अति संक्षिप्त वर्णनके पश्चात् आप लिखते हैं- “इन पूर्वोक्त नव ही तत्त्वोंका स्याद्वाद शैलीसे शुद्ध श्रद्धान करना तिसका नाम सम्यक् दर्शन है; इनका स्वरूप पूर्वोक्त रीतिसे जानना तिसका नाम सम्यक् ज्ञान है और सत्तरें भेदें संयमका पालना तिसका नाम सम्यक् चारित्र है- इन तीनोंका एकत्र समावेश होना, तिसका नाम मोक्षमार्ग है । जड़ और चैतन्यका जो प्रवाहसे मिलाप है सो संसार है । यह संसार प्रवाहसे अनादि अनंत है और पर्यायोंकी अपेक्षा क्षणविनश्वर है, इत्यादि वस्तुका जैसा स्वरूप था तैसा ही है जिनाधीश ! मैंने कथन करा है।४७. भाषा माधुर्य:- भाषाकी कर्णकटुता या कठोरता स्वभावतः श्रोताको वाङ्मयसे विमुख बनानेका सामर्थ्य रखती है, जबकि भाषाका माधुर्य कृतिकारको लोकप्रियताका ताज़ उपलब्ध करवाता है । श्री आत्मानंदजी म.सा.की प्रायः सर्व कृतियोंकी एकसे अधिक आवृत्तिका होना और इतर भाषाओंमें अनुवादित होना ही उनकी लोकचाहनाको अभिव्यक्त करता है, जो उनके विनोदप्रिय मधुरतायुक्त व्यक्तित्वका परिणाम हैं । “यद्यपि आपने गूढ, विवादग्रस्त, धार्मिक और दार्शनिक विषयोंका अपने ग्रन्थोंमें प्रतिपादन किया है, तथापि भाषा पद्यके समान रमणीय है । आपकी हिन्दी भाषामें सरलता, मधुरता और प्रसादादि गुण स्थान-स्थान पर दृष्टिगोचर होते हैं ।*४८. इसको प्रतिपादित करता है श्री दयानंदजी के किये गये आक्षेप- जैनियोंमें विद्या नही है, न कोई ज्ञानी है'- का यथोचित प्रत्युत्तर । आप लिखते है-“यह लिखना ऐसा है जैसा मारवाड़में पद्मिनी स्त्रीका होना । जैसे मारवाड़में एक काली, कुदर्शनी, दंतूरा, चिपटी नासिका बिभत्स रूपवाली किसी स्त्रीको कोई पूछे कि तुम्हारे देशमें पद्मिनी स्त्रीके बारे में सुना है, तिसको तुम जानती हो ? तब वो दीर्घ उच्छ्वास लेकर कहती है, मेरे सिवाय अन्य पद्मिनी स्त्री कोई नहीं । मुझको बहुत शोक (खेद) है कि मेरे समान कोई पद्मिनी न हुई है, न होगी। मेरे पीछे पद्मिनी स्त्री व्यवच्छेद हो जावेगी । भला, यह बात कोई सुज्ञ जन मान लेवेगा कि, जैनमतमें वा अन्य मतमें कोई भी विद्वान नहीं हुआ है ?"१९. किस प्रकार हलके व्यंग्यको कसते हुए (300 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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