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दया धर्म का एक व्यावहारिक पहलू है, मानवता उसका सुन्दर उपवन है। इसलिए सभी जैनाचार्यों ने उसे धर्म के साथ जोड़ा है। पद्मनदि ने 'धर्मों जीवदया, मूलं धर्मतरो' (प. पंच. १.८) कहकर इसी तथ्य को व्यक्त किया है। सर्वार्थसिद्धि (७.११) में 'दीनानुग्रहभावः' और राजवार्तिक में 'सर्वप्राणिषु मैत्री अनुकम्पा' (८.२०.३०) लिखकर आचार्यों ने इसी कथन की पुष्टि की है। इसलिए करुणा को धर्म का मूल कहना तथ्यसंगत है। उसके बिना अहिंसा का परिपालन हो ही नहीं सकता। कार्तिकेयानुप्रेक्षा (गाथा, ४१२) में उसको सम्यक्त्व का चिह्न बताकर उसकी महिमा को और अधिक स्पष्ट कर दिया हैं उमास्वामि श्रावकाचार (३३९) में दया को देवी कहकर सम्मानित किया गया है।
परन्तु यह भी दृष्टव्य है कि करुणा एक प्रकार से मोह का चिह्न है। प्रवचनसार (गाथा, ८५) में पदार्थ का अयथार्थ ग्रहण और प्राणियों के प्रति दयाभाव को मोह-चिह्नों में गिना है। यह निश्चय नय की दृष्टि से उसकी व्याख्या है निश्चय से वैराग्य ही करुणा है (स्याद्वाद म. १०.१०८) और यही करुणा जीव का स्वभाव है (ध. १३.५.५.४८) वह कर्मजनित तत्त्व नहीं हैं। वह तो शुभोपयागी तत्त्व है, समता और माध्यस्थभाव है जिससे दूसरे प्राणियों के दुःख से व्यक्ति स्वयं दुःखी हो जाता हैं और उनके दुःखों को दूर करने का प्रयत्न करता है। ____ भगवती आराधना (गाथा, १८३८) में अनुकम्पा के तीन भेद किये गये हैंधर्मानुकम्पा.(असंयम का त्याग), मिश्रानुकम्पा (गृहस्थों की एकदेश रूप धार्मिक प्रवृत्ति)
और सर्वानुकम्पा (प्राणियों पर दया करना)। ज्ञान विमलसूरि ने इसके चार भेद किये है- स्वदया, पर-दया, द्रव्यदया और भावदया। हरिभद्र ने प्राणियों को अभयदान देना (दाणाण सेढें अभयप्पमाणं, आवश्यक, ६६९) दया की ही निष्पत्ति माना है। यह अभयदान बिना रागादि के नहीं होता। यह उसकी व्यावहारिकता है। इस व्यावहारिकता में करुणा के साथ ही वैराग्य भी पलता है। इसे हम प्रवृत्ति और निवृत्ति का समन्वय कह सकते हैं। सामाजिक सन्तुलन में करुणा पर्यावरण के संरक्षण में दया की अहं भूमिका रहती है हम यह अच्छी तरह समझ चुके हैं।
पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति और त्रस इन छह प्रकार के जीवों को “षट्काय जीव' कहा जाता है। मूंगा, पाषाण आदि रूप पृथ्वी सजीव है क्योंकि अर्थ के अंकुर की तरह पृथ्वी को काटने पर वह फिर से उग आती है। पृथिवी का जल सजीव है क्योंकि मेंढक की तरह जल का स्वभाव खोदी हुई पृथ्वी के समान है। आकाश का जल भी सजीव है क्योंकि मछली की तरह बादल के विकार होने पर वह स्वतः ही उत्पन्न होता है। अग्नि भी सजीव है क्योंकि पुरुष के अंगों की तरह आहार आदि के ग्रहण करने से उसमें वृद्धि होती हैं वायु में जीव हैं क्योंकि गौ की तरह वह दूसरे से प्रेरित होकर गमन करती है। वनस्पति में भी जीव है क्योंकि पुरुष के अंगों की तरह