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निर्मल था (१८-३६), वन सुरभित थे (१३.५), परिखायें निर्मल जल से परिपूर्ण थीं (१-४६), वृक्ष कल्पद्रुम के समान मनोकामना पूरी करते थे (१.६०), गंगा की पवित्रता,(६.७०), जंगलों का सुहावनापन, ऋतुवर्णन आदि से वातावरण की विशुद्धि का पता चलता है। इस प्रकार का वर्णन गद्यचिन्तामणि, जीवन्धरचम्पू, जसहरचरउ आदि सभी काव्य ग्रन्थों में आया है । पुनरावृत्ति के भय से यहाँ हम उन सब का उल्लेख नहीं कर रहे हैं। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्राचीनकाल में मकान बनाने .. में चूने का प्रयोग अधिक होता था (सुधाधवल सौधचयैः ५-३६)। प्रसादों की भित्तियों में स्फटिकमणि, नीलमणि, चन्द्रकान्तमणि, हरित मणिओं का प्रयोग होता था, साथ ही चमकीले पत्थरों का भी ( वरा. १ २९; चन्द्र, १-३४)।
परिखायें और उनके तटों पर वृक्ष लगाये जाते थे। जल, पंक और शुष्क परिखाये होती थीं पर जलपरिखा का प्रयोग अधिक हुआ है। नगर में सरोवर, बापी, दीर्घिकायें, जलाशय, उद्यान, चौराहे बनाये जाते थे। नगर के पास ही ग्राम रहते थे। निगम में भी ग्रामीण जीवन जीवन्त था। वे व्यापार और कृषि उत्पादन के केन्द्र थे। आकर संभवतः खानों के समीपस्थ गांवों के नाम होना चाहिए। खेट शायद मांसभक्षियों का आवास स्थल होगा। ग्राम, नगर आदि के भेदों-प्रभेदों की परिभाषायें जैन साहित्य में उल्लिखित हुई हैं। (आच्रा. १.७.६; उत्तरा . ३०.१६; आदिपु . १६.१६६-६७)। इसका उल्लेख हम पीछे कर भी चुके हैं।
जैनाचार्यों ने तीर्थङ्करों और महापुरुषों के जन्म के समय वातावरण स्वतः प्रशान्त और मनोरम हो जाता था, इस तथ्य की ओर संकेत किया है। ऋषभयदेव के जन्म होने पर शीतल मन्द सुगन्ध पवन बहने लगती है, अग्नि दक्षिण दिशा की ओर घूमकर हवन की सामग्री ग्रहण करने लगती है, नदी निर्मल हो जाती है, शुद्धवायु प्रवाहित होने लगती है (आदिपुराण) । जलक्रीडा, चन्द्रोदय, सायंकाल आदि के वर्णन में भी प्रशान्त वातावरण ध्वनित होता है। यह इन महापुरुषों के आभामण्डल का प्रताप था। आधुनिक विज्ञान भी आभामण्डल की सार्थकता को स्वीकार करता है ।
यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि जैनधर्म में हिंसा और रागी -द्वेषी देवी-देवताओं का कोई स्थान नहीं है। इसी तरह सूर्य-चन्द्र के ग्रहण के समय स्नान करना, सूर्य को अर्घ चढ़ाना, घोड़ा, शस्त्र और हाथी की पूजा करना, गंगा-सिन्धु में स्नान करना, संक्रान्ति में दान देना, गोमूत्र का वन्दन करना, गाय की पीठ की वन्दना करना, वटवृक्ष, पीपल आदि की पूजा करना, देहली का पूजना और मृत व्यक्ति को पिण्डदान देना आदि लोकमूढ़ता है। इससे अन्धविश्वास पनपा है और सामाजिक पर्यावरण दूषित हुआ है। ऐसे अन्धविश्वास फैलाने वालों की सेवा करना पाखण्ड मूढ़ता हैं जैन परम्परा इन मूढ़ताओं को पूरी तरह से नकारती है और उन्हें मिथ्यात्व कहकर उनसे दूर रहने का उपदेश देती है (उमा. श्राव. ८१-८४) । अभ्रदेव ने धर्मपालन के लाभों का वर्णन करते