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२. गुणव्रत .. पंचाणुव्रतों के परिपालन करने के बाद व्रती श्रावक दिशा-विदिशाओं में अथवा किसी स्थान विशेष तक जाने की प्रतिज्ञा ले लेता है। इससे वह छोटे-छोटे प्राणियों की हिंसा से बच जाता हैं इसी को क्रमश: “दिग्वत” और “देशव्रत'' कहते है। निरर्थक आरम्भ अथवा कार्य करने का त्याग करना “अनर्थदण्डव्रत" है, जैसे बिना किसी उद्देश्य के भूमि खोदना, वृक्ष काटना, फलफूल तोड़ना आदि। ये तीनों व्रत गुणों में वृद्धि करते हैं तथा अणुव्रतों के उपकारक हैं। आचार्य कुन्दकुन्द ने दिक्परिमाण, अनर्थदण्डव्रत के पांच भेद किये हैं। उमास्वामी ने भोगोपभोग के स्थान पर देशव्रत रखकर व्रतों के अतिचारों का सर्वप्रथम वर्णन किया है। भगवती आराधना, वसुनन्दि श्रावकाचार, महापुराण आदि ग्रन्थों ने उमास्वामी का ही अनुकरण किया है। इनके अतिचारों का वर्णन पीछे विस्तार से हो चुका है।
पर्यावरण की दृष्टि से अनर्थदण्डव्रत का विशेष महत्त्व है। जैनाचार्यों ने इस पर काफी गहराई से चिन्तन किया हैं उन्होंने कहा है कि पापोपदेशादि अनर्थों को त्याग करना अनर्थदण्ड विरति है। इस अनर्थदण्ड के पांच भेद हैं- पापोदेश, अपध्यान, हिंसादान, दुःश्रुति और प्रमाद चर्या। कबूतर आदि पशु-पक्षियों का पालन-पोषण करना, अंगार कराना, भाड भुजवाना, लोहार-सोनार आदि का काम करना, ईटों को पकाना, घोड़े, बैलों और गधों को रखना, तथा नख, हड्डी, त्वचा का विक्रय करना भी अनर्थदण्ड हैं इसी प्रकार लोणी, मक्खन, चर्बी, मदिरा, मधु, भांग, अफीम, गांजा, दास-दासी, पशु-पक्षी आदि का भी विक्रय नहीं करना चाहिए। गाड़ी चलाना, घटादि बेचना, चित्रलेप करना, बुहारी, पिंजरा, बन्दूक, तलवार, ओखली, मूसल आदि शस्त्र रखना या दूसरों को देना, जीवोत्पत्ति होने वाले सरसों आदि धान्यों का संग्रह करना भी अनर्थदण्ड की परिधि में आता है। लाख, मैनसिल, नील, सन, हल, धावड़ा के फूल, हड़ताल, विष आदि का व्यापार करना, बावड़ी, कुआ, तालाब आदि जलाशयों को सुखाना, भूमि जोतना, येड़-पौधे काटना, टांकना, शरीर को अग्नि से दागना, नाक छेदना, मुष्के बांधना, हाथों को छेदना, चरणों का भंजन करना, कान काटना, बैल आदि को नपुंसक करना, खाल-छालादि उतारना, शरीर को गर्म लोहे से अंकित करना, छेदना आदि भी अनर्थदण्ड कहलाता है (उमा. श्रा.)।
अनर्थदण्ड की बहुत लम्बी सीमा बांधने के पीछे जैनाचार्यों का चिन्तन यह था कि व्यक्ति अपनी आजीविका के साधनों को अधिक से अधिक शुद्ध रखे ताकि हिंसा से बचा जा सके। व्यापारों की लम्बी सूची में अधिकांश ऐसे व्यापार हैं १. उपासकदशांग, अ. १. २. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ६७. ३. सागारधर्मामृत, ५.१.