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१२. क्षीणकषाय __इस गुणस्थान में सूक्ष्मलोभ का क्षय हो जाता है और साथ ही ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय रूप शेष घातिया कर्म भी नष्ट हो जाते है। फलत: जीव को कैवल्य अवस्था प्राप्त हो जाती हैं इस गुणस्थान से जीव का पतन नहीं होता बल्कि अन्तर्मुहूर्त रहकर वह नियम से तेरहवें गुणस्थान में चला जाता हैं इस गुणस्थाने तक के जीव छद्मस्थ कहलाते हैं क्योंकि इस अवस्था तक उसके साथ कर्मों का सम्बन्ध बना रहता है। १३. सयोगकेवली
यहाँ कैवल्यावस्था प्राप्त जीव को अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य रूप गुण प्राप्त होते हैं। उसमें मात्र सत्यवचन, अनुभयवचन और भौदारेक काय रूप त्रियोग शेष रह जाता हैं इसलिए इसे सयोगकेवली कहा जाता है। सत्यवचनयोग और अनुभयवचनयोग से वह संसारी जीवों को मोक्षमार्ग का उपदेश देता है। यहाँ शुक्लध्यान का तृतीय भेद प्रगट हो जाता है।२ . १४. अयोगकेवली
इस गुणस्थान में सयोगकेवली शुक्लध्यान के चतुर्थ भेद को प्राप्त कर त्रियोगों का निरोध करता है और बाद में यथासमय अशरीरी होकर अघातिया कर्मों को भी नष्ट कर सिद्धावस्था को प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार गुणस्थान को आत्मा के क्रमिक विकास का अध्ययन कहा जा सकता है। किस प्रकार जीव अपनी मिथ्यात्व अवस्था को छोड़कर सम्यक्त्व अवस्था प्राप्त करता है और बाद में समस्त कर्मों का उपशमनकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है, इसका सोपानगत विश्लेषण हम गुणस्थान के माध्यम से जान पाते हैं।
जैन श्रावक की आचार व्यवस्था का यह संक्षिप्त विवेचन उसके क्रमिक इतिहास को प्रस्तुत करता हैं जैनेतर दर्शनों में निर्धारित व्यवस्था का भी यहाँ अध्ययन किया जाना अपेक्षित है। उनके बीच तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि जैन आचार
१. पञ्चसंग्रह (प्राकृत), १.२५; धवला, १, पृ. १९०. २. वही, १.२७-३०. ३. नन्दिचूर्णि में पन्द्रह प्रकार के सिद्धों का वर्णन किया गया है। ४. पञ्चसंग्रह (संस्कृत), १.४९-५०. ५. इस सन्दर्भ में विशेषावश्यकभाष्य आदि ग्रन्थ दृष्टव्य हैं।