Book Title: Vasnunandi Shravakachar
Author(s): Sunilsagar, Bhagchandra Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 443
________________ वसुनन्दि- श्रावकाचार ३२७ परिशिष्ट करके खड़े हो गये हैं । अन्त में महाराज श्रेणिक को इस बात की सूचना की गई तो उन्होंने कोतवाल आदि के कहने पर भरोसा करके वारिषेण का मस्तक काट डालने की आज्ञा दे दी। जब चाण्डाल हाथ में तलवार लेकर श्री वारिषेणकुमार के गले पर चलाने लगा, तब उनके पुण्य के प्रभाव से वह तलवार पुष्पमाला हो के उनके कण्ठ में पड़ गयी । यह अद्भुत घटना देखकर देवता लोग जय-जय शब्द बोलते हुए पुष्पों की वर्षा करने लगे। वारिषेण ने न तो रत्नहार पास में रखने पर अपना ध्यान छोड़ा था, न अब भी छोड़ा। जब श्रेणिक महाराज को यह समाचार मिले तो अपनी मूर्खता पर पछताने लगे। वारिषेण के पास गये और अपने अपराध की क्षमा माँगी। राजा श्रेणिक ने श्री वारिषेण कुमार से घर पर चलने को बार- बार कहा, परन्तु उन्होंने संसार का ऐसा चरित्र देखकर जिनदीक्षा ले ली और महातप करके मोक्ष को पधारे। नीली की कथा (ब्रह्मचर्याणुव्रत) लादेश के भृगुकच्छ नगर में राजा वसुपाल रहता था। वहीं एक जिनदत्त नाम का सेठ रहता था। उसकी स्त्री का नाम जिनदत्ता था । उनके एक नीली नाम की पुत्री थी, जो अत्यन्त रूपवती थी। उसी नगर में एक समुद्रदत्त नाम का सेठ रहता था, उसकी स्त्री का नाम सागरदत्ता था और उन दोनों के एक सागरदत्त नाम का पुत्र था। एक बार महापूजा के अवसर पर मन्दिर में कायोत्सर्ग से खड़ी हुई तथा समस्त आभूषणों से सुन्दर नीली को देखकर सागरदत्त ने कहा कि क्या यह कोई देवी है? यह सुनकर उसके मित्र प्रियदत्त ने कहा कि यह जिनदत्त सेठ की पुत्री नीली है। नीलीका रूप देखने से सागरदत्त उसमें अत्यन्त आसक्त हो गया और यह किस तरह प्राप्त हो सकती है, इस प्रकार उसके विवाह की चिन्ता से दुर्बल हो गया। समुद्रदत्त ने यह सुनकर उससे कहा कि हे पुत्र ! जैन को छोड़कर अन्य किसी के लिये जिनदत्त इस पुत्री को विवाह के लिये नहीं देता है। ८. तदनन्तर वे दोनों पिता पुत्र कपट से जैन हो गये और नीलीको विवाह लिया । विवाह के पश्चात् वे फिर बुद्धभक्त हो गये। उन्होंने नीलीका पिता के घर जाना भी बन्द कर दिया। इस प्रकार धोखा होने पर जिनदत्त ने यह कह कर सन्तोष कर लिया कि यह पुत्री मेरे हुई ही नहीं है अथवा कुआ आदि में गिर गई है अथवा मर गई है। नीली अपनेपति को प्रिय थी, अतः वह श्वसुराल में, जिनधर्म का पालनकरती हुई एक भिन्न घर में रहने लगी। समुद्रदत्त ने यह विचार कर कि बौद्ध साधुओं के दर्शन से, संसर्ग से, उनके , धर्म और देव का नाम सुनने से काल पाकर यह बुद्ध की भक्त हो जायेगी, एक वचन,

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