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वसुनन्दि-श्रावकाचार (३)
आचार्य वसुनन्दि मल के दो भेद है – द्रव्यमल और भावमल। इनमें से द्रव्यमल के दो भेद हैं - बाह्य और अभ्यन्तर। पसीना, मल, धूल, कीचड़ आदि बाह्य मल हैं। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्ध के भेद से चार भेद रूप ज्ञानावरणादि आठ कर्म, जो आत्मा में एक क्षेत्रावगाह रूप बद्ध हैं, अन्तरंग या अभ्यन्तर द्रव्यमल हैं। यह मल सब पापों के कारण हैं।
जीव के अज्ञान, अदर्शन रूप परिणाम भावमल हैं। इन मलों को जो नष्ट करे, वह मंगल है।२
__ अथवा जो मंग अर्थात् सख को, पण्य को लाता है, इसलिये भी ग्रन्थकार इस मंगल के द्वारा कार्य की सिद्धि करते हैं - मंगं सुखं लातीति मंगलम्।३
मंगल के छह भेद हैं - नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव। अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु के नामों को नाम मंगल कहते हैं। कृत्रिम-अकृत्रिम, जिनबिम्ब आदि स्थापना मंगल हैं। आचार्य, उपाध्याय और साधु के शरीर द्रव्य मंगल हैं। जिन स्थानों पर तपस्या आदि के द्वारा गुण प्राप्त किये गये हों ऐसे तप कल्याणक के स्थान, केवलज्ञान की उत्पत्ति के स्थान आदि क्षेत्र मंगल हैं। इसके अनेक भेद हैं। इसी प्रकार जिनमहिमा से सम्बद्ध नन्दीश्वर दिवस (अष्टाह्निका) बगैरह काल मंगल है। मंगल पर्याय रूप से परिणत जीव द्रव्य भाव मंगल है। ग्रन्थ के आदि, मध्य और अन्त में भाव मंगल करना चाहिये। शास्त्र के आदि में मंगलाचरण करने से शिष्य शास्त्र-पारगामी होते हैं, मध्य में मंगलाचरण करने से विद्या में विघ्न नहीं आता तथा अन्त में मंगलाचरण करने से विद्या का फल प्राप्त होता है। - प्रस्तुत कृति में कृतिकार आचार्य श्री वसुनन्दि मंगलाचरण करते हुए कहते है कि जिन जिनेन्द्र भगवान् के चरण कमल देवेन्द्रों के मुकुटों में लगी हुई मणियों की किरणरूपी जलधारा से अभिषिक्त है अर्थात् सौ इन्द्रों से वन्दित हैं। वे शत् इन्द्र इस प्रकार होते हैं- भवनवासी देवों के चालीस इन्द्र (इनके दस भेद हैं प्रत्येक भेद में दो-दो इन्द्र और दो-दो प्रतीन्द्र होते हैं अत: ४० इन्द्र कहे गये हैं। व्यन्तरों के ३२ इन्द्र (इनके आठ भेदों में दो-दो इन्द्र और दो-दो प्रतीन्द्र होते हैं), कल्पवासी देवों के २४ इन्द्र (कल्पवासी देवों के बारह भेद हैं। प्रत्येक में एक इन्द्र और एक प्रतीन्द्र होता है अत: २४ इन्द्र हुए), ज्योतिषी देवों के चन्द्र और सूर्य ये दो इन्द्र, मनुष्यों का एक इन्द्र चक्रवर्ती और तिर्यंच का एक इन्द्र सिंह इस प्रकार सब (४०+३२+२४+२+१+१) मिलाकर सौ १०० इन्द्र होते हैं।
१. ति.प. १/१३. ३. ति.प. १/१८.
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ति.प., १/१४. ति.प., १/२१-२९.