Book Title: Vasnunandi Shravakachar
Author(s): Sunilsagar, Bhagchandra Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 400
________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (२८४) आचार्य वसुनन्दि करता है, (तं) उसे, (जहण्णय) जघन्य, (पोसहविहाणं) प्रोषध-विधान, (णेयं) जानना चाहिए। अर्थ- जो अष्टमी और चतुर्दशी आदि पर्व के दिनों में आचाम्ल, निर्विकृति, एकस्थान, अथवा एकभक्त को करता है, उसे जघन्य प्रोषध-विधान जानना चाहिए। व्याख्या- प्रोषधोपवासप्रतिमाधारी श्रावक के लिए उत्तम-मध्यम अथवा जघन्य प्रोषध करना आवश्यक होता है। यहाँ जघन्य प्रोषधोपवास के सम्बन्ध में समझना है। आचाम्ल- जब निर्जल उपवास करने की शक्ति नहीं हो, तब इसे करने को आचाम्ल या आयंबिल कहते हैं। विद्वानों के अभिमतानुसार- छह रसों में से आम्ल (खट्टा) रस के अलावा शेष रसों का त्याग करके नीबू, इमली आदि के रस के साथ . केवल पानी के भीतर पकाया गया अन्न, धूघरी या रुखी रोटी आदि भी खाई जा सकती है। पानी में उबले चावलों को इमली आदि के रस के साथ खाने को भी कुछ विद्वानों ने आचाम्ल कहा है। इस व्रत के भी तीन भेद हैं। इस सम्बन्ध में पं० हीरालाल द्वारा उद्धृत टिप्पणी द्रष्टव्य है आयंबिल-अम्लं चतुथों रसः, स एव प्रायेण व्यंजने, यत्र भोजने ओदन-कुल्माष-सक्तुप्रभृतिके तदामाचामाम्लम्। आयंविलमपि तिविहं उक्किट्ठ-जहण्ण-मज्झिमदएहिं।। तिविहं जं विउलपूवाइ पकप्पए तत्थ।।१०२।। मिय-सिंधव-सुंठि मिरीमेही सोवच्चलं च विडलवणे। ' हिंगुसुगंधिसु पाए पकप्पए साइयं वत्थु ।। १०३।। – अभिधानराजेन्द्र (शब्दकोष)। निर्विकृति- इस व्रत में विकार उत्पन्न करने वाले भोजन का त्याग किया जाता है। दूध, घी, दही, तेल, गुड़ आदि रसों को शास्त्रों में विकृति संज्ञा दी गई है, क्योंकि वे सब इन्द्रिय विकारोत्पादक हैं। अतएव उक्त रसों का या उनके द्वारा पके हुए पदार्थों का परित्याग कर बिल्कुल सात्विक एवं रुक्ष भोजन करने को निर्विकृतिव्रत कहा गया है। इसे करने वाला भाड़ के भुंजे चना, मक्का, ज्वार, गेहूँ या पानी में उबले अन्न घुघरी आदि भी खा सकता है। कुछ लोगों के अनुसार दो अन्नों के संयोग से बनी हुई सत्तू खिचड़ी आदि भी खाई जा सकती है। पं० आशाधर ने सागर धर्मामृत (५/३५) में लिखा है- विक्रियते जिह्वामनसि येनेति विकृतिोरसेक्षुरसफलरसधान्यरसभेदाच्चतुर्विधा। तत्र गोरस: क्षीरघृतादि, इक्षुरस: खण्डगुडादि, फलरसो द्राक्षाम्रादिनिष्यन्दः, धान्यरसस्तैलमाण्डादिः। अथवा यद्येन सह

Loading...

Page Navigation
1 ... 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466