Book Title: Vasnunandi Shravakachar
Author(s): Sunilsagar, Bhagchandra Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 418
________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (३०२) आचार्य वसुनन्दि जइ . अद्धवहे' कोइ वि भणइ पत्थेइ भोयणं कुणह । भोत्तूण णिययभिक्खं तस्सण्णं भुंजए सेसं ।। ३०६।। अह ण भणइ तो भिक्खं भमेज्ज णियपोट्टपूरणपमाणं। पच्छा एयम्मि गिहे जाएज्ज पासुयं सलिलं ।। ३०७।। जं किं पि पडियभिक्खं भुंजिज्जो सोहिऊण जत्तेण। पक्खालिऊण पत्तं गच्छिज्जो गुरु सयासम्मि ।। ३०८।। जइ एवं ण रएज्जो काउंरिसगिहम्मि२ चरिमाए ।। . पविसत्ति एय भिक्खं पवित्तिणियमणं३ ता कुज्जा ।। ३०९।। . गंतूण गुरुसमीवं पच्चक्खाणं चउव्विहं विहिणा। .. गहिऊण तओ सव्वं आलोचेज्जापयत्तेण ।। ३१०।। . अन्वयार्थ– (पढम) प्रथम उत्कृष्ट श्रावक, (धम्मिल्लाणं) बालों का, (चयणं) चयन (कटवाना), (कत्तरि) कैंची, (वा) अथवा, (छुरेण) छुरा से, (करेइ) कराता है, (तथा) (पयडप्पा) प्रयत्नशील होकर, (उवयरणेण) उपकरण से, (ठाणाइस) स्थान आदि में, (पडिलेहइ) प्रतिलेखन करता है, (पाणिपत्तम्मि वा भायणे) पाणिपात्र अथवा हाथ में, (सई) एक बार, (समुवइट्ठो) बैठकर, (मुंजेइ) भोजन करता है, (पुण) किन्तु, (चउविहं पव्वेसु) चारों प्रकार के पर्यों में, (णियमा) नियम से, (उववासं कुणइ) उपवास करता है। (पक्खालिंऊण पत्तं) पात्र को प्रक्षालित (धो) करके, (चरियाय) चर्चा के लिए, (पंगणे पविसइ) श्रावक के आँगन में प्रवेश करता है (और), (ठिच्चा) ठहर कर, (धम्मलाह) धर्मलाभ', (भणिऊण) कहकर, (सयं चेव) स्वयं ही, (भिक्खं जायइ) भिक्षा मांगता है, (लाहालाहे) लाभ के अलाभ में, (अदीणवयणो) अदीनमुख हो, (तओ) वहाँ से, (सिग्धं णियत्तिऊण) शीघ्र निकलकर, (अण्णमि गिहे) अन्य घर में, (बच्चइ) जाता है, (वा) और, (मोणेण) मौन से, (कार्य) शरीर को, (दरिसइ) दिखलाता है, (जइ) यदि, (अद्धवहे) अर्द्धपथ में, (को वि) कोई भी, (पत्थेइ) प्रार्थना करे और (भणति) कहता है (कि), (भोयणं कुणह) भोजन कर लीजिए, (तो) (णिययभिक्ख) अपनी भिक्षा को, (भोत्तूण) खाकर, (सेस) शेष, (तस्सण्णं) उसके अन्न को (भुंजए) खावे, (अह) अथवा, (ण भणइ) नहीं कहता है, (तो) तो, (णियपोट्टपूरणपमाणं) अपने पेट को पूरण करने के प्रमाण, (भिक्खं भमेज्ज) भिक्षा को घूमता है, (पच्छा) बाद १. प. अट्ठवहे. २. काउंरिसिगोहणम्मि. ३. ध. णियमेण.

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