Book Title: Vasnunandi Shravakachar
Author(s): Sunilsagar, Bhagchandra Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 423
________________ (वसुनन्दि-श्रावकाचार (३०७) आचार्य वसुनन्दि अन्वयार्थ- (एयारसम्मिठाणे) ग्यारहवें स्थान में, (सुत्ताणुसारेण) सूत्रानुसार, (समासेण) संक्षेप से, (उद्दिपिण्डविरओ) उद्दिष्ट आहार के त्यागी (दुवियप्पो सावओ) दोनों प्रकार के श्रावकों का, (भणिओ) वर्णन किया। ___अर्थ- ग्यारहवें प्रतिमास्थान में उपासकाध्ययन सूत्र के अनुसार संक्षेप से मैंने उद्दिष्ट आहार के त्यागी दोनों प्रकार के श्रावकों का वर्णन किया है। व्याख्या- स्वामिकार्तिकेय ने कहा है___ जो सावय वयसुद्धो अंते आराहणं परं कुणदि। सो अच्चुदम्मि सग्गे इंदो सुर-सेविदो होदि।।३९१ ।। अर्थ- जो श्रावक व्रतों से शुद्ध होकर अन्त में उत्कृष्ट आराधना को करता है वह अच्युत स्वर्ग में देवों से पूजित इन्द्र होता है। पं० आशाधर जी कहते हैंदानशीलोपवासा भेदादपि चतुर्विधः। स्वधर्मः श्रावकैः कृत्यो भवोच्छित्त्यै यथायथम्।।सा० ध०७/५१।। अर्थ- संसारपरिभ्रमण का विनाश करने के लिए दान, शील, उपवास ओर जिनादि पूजा के भेदं से चार, प्रकार का अपना आचार श्रावकों को अपनी-अपनी . प्रतिमासम्बन्धी आचरण के अनुसार करना चाहिए। . और भी कहा है प्राणान्तेऽपि न भतव्यं गुरुसाक्षिश्रितं व्रतम्। . प्राणान्तस्तत्क्षणे दुःखं व्रतभङ्गो भवे-भवे।।७/५२।। अर्थ- गुरु अर्थात् पंचपरमेष्ठी, दीक्षागुरु और प्रमुख धार्मिक पुरुषों के सामने - लिये गये.व्रत को प्राणान्त होने पर भी नहीं भंग करना चाहिए। अर्थात् व्रतभंग न करने पर यदि प्राणों का भी नाश होता हो तब भी व्रतभंग नहीं करना चाहिए। क्योंकि प्राणों का अन्त तो उसी क्षण में दुःखदायी होता है। किन्तु व्रत का भंग भव-भव में दुःखदायी होता है। श्रावक को जो मुनिराजों का समिति गुप्ति आदि आचरण है, वह भी अपनी शक्ति और संयम की भूमिका का भी अच्छी तरह विचारकर पालन करना चाहिए। कहा भी है यत्प्रागुक्तं मुनीन्द्राणां वृत्तं तदपि सेव्यताम्। सम्यङ् निरुप्य पदवीं शक्तिं च स्वामुपासकैः । ।सा०५०५९।।

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