Book Title: Vasnunandi Shravakachar
Author(s): Sunilsagar, Bhagchandra Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 440
________________ वसुनन्दि-श्रावकाचार ३२४ परिशिष्ट देखने के लायक होते है। स्वर्ग के देव भी यहाँ आकर इच्छित सुख प्राप्त करते है। मालवे के तमाम नगरों में बड़े विशाल जिनमन्दिर बने थे। उन मन्दिरों की ध्वजाएँ ऐसी दिख पड़ती थी, मानो वे स्वर्ग का मार्ग बतला रही हों। जिस समय की यह कथा है, उस समय मालवा धर्म का केन्द्र बन रहा था। मालवे के धरगाँव नामक नगर में देविल नाम का एक धनी कुम्हार और धर्मिल नाम का एक नाई रहता था। इन दोनों ने मिलकर नगर में बाहर से आने वाले यात्रियों के ठहरने के लिये एक धर्मशाला बनवा दी। एक दिन की बात है देविल ने एक मुनि को लाकर धर्मशाला में ठहरा दिया। जब यह बात . धर्मिल को मालूम हुई तो उसने मुनि को निकालकर एक संन्यासी को लाकर ठहरा दिया। ठीक ही है, दुष्टों को साधु सन्त अच्छे नहीं लगते। सबेरे जब देविल मुनि के दर्शन के लिये आया तो उन्हें धर्मशाला में न देख एक वृक्ष के नीचे बैठे हुए देखा। . उसे धर्मिल की दुष्टता पर बड़ा क्रोध हुआ। उसने धर्मिल को बुरी तरह फटकारा। धर्मिल भी क्रोधित हुआ। यहाँ तक झगड़ा बढ़ा कि वे लड़ कर मर मिटे। दोनों की क्रूर भावों : से मृत्यु होने के कारण क्रम से सूअर और व्याघ्र हुए। ये दोनों विन्ध्य पर्वत की अलग-अलग गुफाओं में रहतेथे। एक दिन संयोग से.पृथ्वी को पवित्र करते हुए दो मुनिराज इसी गुफा में आकर ठहरे। उन्हें देखते ही सूअर को जाति स्मरण हो गया। उसने मुनियों के उपदेश से कुछ व्रत ग्रहण कर लिये। गुफा में मनुष्यों का गन्ध पाकर धर्मिल का जीव व्याघ्र मुनियों को खाने के लिए झपटा। सूअर देख रहा था। वह द्वार रोकर खड़ा हो गया। दोनों में लड़ाई होने लगी। एक मुनियों का रक्षक था और दूसरा भक्षक। अतएव देविल का जीव मृत्यु प्राप्त कर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ। उसके शरीर की कान्ति चमकती हुई मन को मोहित करने लगी। वह ऋद्धि-सिद्धियों का धारक हुआ। जो लोग जिन भगवान् की प्रतिमाओं की, कृत्रिम और अकृत्रिम मन्दिर में पूजा करते हैं, तथा मुनियों की भक्ति करते हैं, उन्हें ऐसे ही सुख प्राप्त होते हैं। अतएव सुख चाहने वाले सत्पुरुषों को जिनपूजा, पात्र दान, व्रत-उपवासादि धर्म का पालन करना चाहिये। देविल को तो स्वर्ग मिला, पर धर्मिल अपने पाप से नरक गया। इस प्रकार पुण्य और पाप का फल जान कर सत्पुरुषों को उचित है कि वे पवित्र जैनधर्म में अपना विश्वास दृढ़ करें। ५. यमपाल चाण्डाल की कथा (अहिंसाणुव्रत) सुरम्य देश पोदनपुर नगर में राजा महाबल रहता था। नन्दीश्वर पर्व को अष्टमी के दिन राजा ने यह घोषणा की कि आठ दिन तक जीवघात नहीं किया जावेगा। राजा का बल नाम का एक पुत्र था, जो कि मांस खाने में आसक्त था। उसने यह विचार कर कि यहाँ कोई पुरुष दिखाई नहीं दे रहा है, इसलिये छिपकर राजा के बगीचे में राजा के मेंढा को मरवाकर तथा पकवाकर खा लिया। राजा ने जब मेंढा मारे जाने का समाचार सुना, तब वह बहुत क्रुद्ध हुआ। उसने मेंढा मारने वाले की खोज शुरू कर

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