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वृद्धि रूप उपकार के लिए अपने धन का विसर्जन करना दान है (तत्त्वार्थ वृत्ति श्रुतसागरीय, ७.३८ ) । इस विसर्जन में न ममता रहती है और न अहंमन्यता और न उससे किसी भी प्रकार को बदले में पाने की भावना रहती है। वह तो शुद्ध हृदय से सत्पात्र में अपने न्यायोपार्जित द्रव्य का उत्सर्ग कर देता है।
जैनाचार्यों ने दान पर बहुत लिखा है । वे यह अच्छी तरह से जानते थे कि दान के पीछे क्या-क्या होता है या होने की संभावना रहती है। दान के बहाने एक नया व्यापार शुरु हो जाता है। शायद यही अनुभव कर किसी जैनाचार्य ने दान के पांच दूषण गिनाये हैं- १) दान लेने वाले का अनादर करना, देने में विलम्ब करना, दान देने में बाद में अरुचि दिखाना, लेने वाले का तिरस्कार कर दान देना और दान के
बाद पश्चात्ताप करना ।
अनादरो विलम्बश्च वैमुख्यं विप्रियं वचः ।
पश्चात्तापश्च दातुः स्यात् दानदूषण पंचकम् ।।
इसी तरह जैनाचार्य ने दान के पांच भूषण भी बताये हैं- दान देते समय आनन्दातिरेक से आंसू उमड़ आना, पात्र को देखते ही रोमांच हो जाना, पात्र का बहुमान करना, प्रिय वचनों से उसका स्वागत सत्कार करना तथा दान के योग्य पात्र का अनुमोदन
करना।
इस प्रसंग में यह भी विचार किया है जैनाचार्यों ने कि दान देने के उद्देश्य से द्रव्यार्जन करना उचित है क्या? इस प्रश्न पर एकमत होकर सभी जैनाचार्यों ने अनुचित माना है क्योंकि द्रव्यार्जन में भावों में वह पवित्रता नहीं रह पाती चाहे कितना भी निरासक्त भाव रहे। इसलिए पूज्यपाद ने इष्टोपदेश (१६) में स्पष्ट कहा है कि जो निर्धन व्यक्ति पात्रदान, देवपूजा आदि प्रशस्त कार्यों में निमित्त अपूर्व पुण्य प्राप्ति और पाप विनाश की आशा से नौकरी, कृषि, वाणिज्य आदि कार्यों द्वारा धनोपार्जन करता है, वह व्यक्ति " बाद में नहा लूंगा" इस आशा से अपने निर्मल शरीर पर कीचड़ लपेट लेता है।
त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्तः संचिनोति यः । स्वशरीरं स पंकेन स्नास्यामीति विलुम्पति ।।
उत्तराध्ययन आदि ग्रन्थों में भी इसी प्रकार के विचारों की पुष्टि की गई है।
इस संदर्भ में दान और पुण्य पर विचार कर लेना आवश्यक हैं नवतत्त्व प्रकरण में उमास्वामी ने कहा है— योगः शुद्धः पुण्याश्रवस्तु पापस्य तद्विपर्यासः अर्थात् पुण्याश्रव का कारण है शुभ परिणाम और पापाश्रव का कारण है अशुभ परिणाम। ठाणांग (९.३.६७६) में पुण्य के ९ कारण दिये गये हैं । अन्न, पान, स्थान, शयन, आवास आदि के दान से तथा मन, वचन, माया आदि की शुभ प्रवृत्ति से एवं योग्यगुणी को