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(८२) स्वपरविवेकी साधु यथाशक्य प्रयत्न करते हैं। वे तरह-तरह से साधनारत व्यक्ति के लिए उपदेश देते रहते हैं और धर्म साधना में व्यस्त व्यक्ति के भावों को दृढ़ बनाये रखते हैं। मुनि भी अन्तिम समय में सल्लेखना धारण करते हैं। ७. मरण के प्रकार
जैन साहित्य में शरीर त्याग के तीन प्रकारों का उल्लेख मिलता है- च्युत, च्यावित और त्यक्त। आयु के समाप्त होने पर स्वभावत: मरण हो जाना च्युत है। शस्त्र अथवा विषादिक द्वारा शरीर छोड़ना च्यावित है जो उचित नहीं कहां जा सकता
और समाधिमरण द्वारा मरण होना त्यक्त कहलाता है। त्यक्त के तीन प्रकार हैं- भक्त प्रत्याख्यानमरण, इंगिनीमरण और प्रायोपगमनमरण।
१. भक्तप्रत्याख्यानमरण- इसमें आहारादि त्यागने के बाद साधक शरीर की परिचर्या स्वयं ही करता है, दूसरों से नहीं कराता। वह प्रतिज्ञा करता है कि मैं सर्व प्रथम हिंसादि पांचों पापों का त्याग करता हूँ। मुझे सब जीवों में समता भाव है, किसी के साथ भी मेरा वैर नहीं। इसलिए मैं सर्व आकांक्षाओं को छोड़कर समाधि (शुद्ध) परिणाम को प्राप्त होता हूँ। मै सब अन्न-पान आदि आहार की अवधि का, आहार संज्ञा का, सम्पूर्ण आशाओं, कषाओं का और सर्वपदार्थों में ममत्व भाव का त्याग करता हूँ।२ इस प्रतिज्ञा से साधक के परिणाम अत्यन्त सरलता औरविरागता की ओर बढ़ जाते हैं। वह साधक निश्छल और क्षमाशील हो जाता है। यावज्जीवन आहारादि का त्याग कर संसार-सागर से पार होने का उपक्रम करता है। कुन्दकुन्द, वसुनन्दि आदि आचार्यों ने इसे शिक्षाव्रतों में सम्मिलित किया है जब कि उमास्वामि, समन्तभद्र आदि आचार्यों ने उसे मारणान्तिक कर्तव्य के रूप में माना है।
भक्तप्रत्याख्यानमरण के दो भेद हैं- सविचार और अविचार। नाना प्रकार से चारित्र का पालन करना और चात्रि में ही विहार करना विचार है। उस विचार के साथ जो वर्तता है वह सविचार है और जो इस प्रकार का वर्तन नहीं करता वह अविचार है। जो गृहस्थ या मुनि उत्साह व बलयुक्त है और जिसका मरणकाल सहसा उपस्थित नहीं हुआ है अर्थात् जिसका मरण कुछ अधिक समय बाद प्राप्त होगा, ऐसे साधु के मरण को सविचार भक्तप्रत्याख्यानमरण कहते हैं। जिसमें कोई सामर्थ्य नहीं और जिसका मरणकाल सहसा उपस्थित हुआ है ऐसे साधु के मरण को अविचारभक्तप्रत्याख्यान कहते हैं।
१. गोम्मटसार कर्मकाण्ड, ५६-६१. २. मूलाचार, १०९-१११; भगवतीशतक, १३, ३.८ पा. ३०; ठाणांगटीका,
२.४.१०२. ३. भगवती आराधना, वि., गाथा, ६५.