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(८०) से मुंह मोड़कर आध्यात्मिक परम सुख से साधनों को एकत्र करने लगे। यह आत्मोन्मुखी वृतित परकल्याण की आधार भूमिका बन जाती है। श्रावक की इस अवस्था में ज्ञानाचार (श्रुतज्ञान), दर्शनाचार (सम्यग्दर्शन), चारित्राचार (समितियों और गुप्तियों का परिपालना), तपाचार (बाह्य-आभ्यन्तर तप) और वीर्याचार (यथाशक्ति आचार ग्रहण) सुदृढ़ हो जाता हैं अर्हत्प्राप्ति इसी की अभिहिति मात्र है। विशुद्ध सामाजिक पर्यावरण की यह फलश्रुति है। साधक श्रावक
श्रावक की यह तृतीय अवस्था है। यहाँ तक पहुंचते-पहुंचते वह विषय-वासनाओं से अनासक्त होकर शरीर को भी बन्धन रूप समझने लगता है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और. चारित्र के समन्वित आचरण से उसका मन संसार से विरक्त हो जाता है। उस स्थिति . में यदि शरीर और इन्द्रियाँ अपना काम करना बन्द कर देती हैं तो सम्यक् आचरण में बाधा उत्पन्न होती है और पराधीनता बढ़ती चली जाती है। इसलिए उससे मुक्त होने के लिए साधु अथवा श्रावक सल्लेखना (समाधिमरण) धारण करता है। इस व्रत में आमरण निरासक्त होकर आहार, जलादिक का पूर्णत: त्याग कर दिया जाता है और · धर्माराधनपूर्वक शरीर त्याग करने का संकल्प ग्रहण कर लिया जाता है। आज की परिभाषा में इसे आत्महत्या नहीं कहा जा सकता। सल्लेखना
सल्लेखना का तात्पर्य है- सम्यक् प्रकार से काय और कषाय को कृष (लेखन) करना।२ यह व्रत विशेषत: उस समय ग्रहण किया जाता है जब कि साधक के ऊपर कोई तीव्र उपसर्ग आ गया हो अथवा दुर्भिक्ष, वृद्धावस्था और रोग के कारण आचार-प्रक्रिया में बाधा आ रही हो। ऐसी परिस्थिति में यही श्रेयस्कर है कि साधक अपने धर्म की रक्षार्थ विधिपूर्वक शरीर को छोड़ दे। यहाँ आन्तरिक विकारों का विसर्जन करना साधक का मुख्य उद्देश्य रहता है। आत्महत्या और सल्लेखना
इस प्रकार के शरीर त्याग में साधक पर किसी भी प्रकार से आत्महत्या का दोष नहीं लगाया जा सकता। क्योंकि आत्महत्या करने वाला किसी भौतिक पदार्थ की अतृप्त १. महापुराण, ३९.१४९; चारित्रसार, ४१-२. २. सर्वार्थसिद्धि, ७.२२; वसुनन्दि श्रावकाचार, २७२वीं गाथा. ३. उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे।
धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः।। रत्नकरण्डश्रावकाचार, ५.१.