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हुए मिथ्यात्व को पोषण न करने का भी आग्रह किया है। उन्होंने मिथ्यात्व को पोषण करने वाली जिन क्रियाओं का उल्लेख किया है, उनमें मुख्य हैं। पंचाग्नि तप, मद्य-मांस-मधु और पंचोदम्बरों का सेवन, समुद्र या नदी स्नान करने में पवित्रता मानना, वीर पुरुषों की कथा सुनना, कुपात्रदान, रात्रि भोजन, गाय आदि से श्राद्ध करना, मांस, स्त्री आदि का दान करना, गाय-सांड़ का विवाह कराना, हरिद्वार आदि में अस्थि-विसर्जन करना, गौदान, पीपल आदि पूजन में धर्म मानना आदि। आगे अभ्रदेव ने यह भी स्पष्ट किया है कि धर्म तो वस्तुत: जीवदया और संयम धारण करने से होता है और यह संयमधारण रत्नत्रय के सम्यक् परिपालन से ही हो पाता है (व्रतोद्योतन श्री. ३५४-४००)। पद्मनंदि ने भी धर्म को जीव का जीवन बताकर जीवदया पर अच्छा प्रकाश डाला है (१०६-११६)।
यज्ञ और बलि जैसी प्रथाओं ने समाज को जो अन्धविश्वास दिये उन्होंने पर्यावरण को प्रदूषित करने में बड़ा सहयोग दिया। जैनधर्म ने सर्वप्रथम ऐसे अन्धविश्वासों को मूढ़ता की संज्ञा देकर उन्हें दूर करने का मार्ग चिन्तन के माध्यम से सुझाया और मिथ्यात्व से हटकर सम्यक्त्व की ओर कदम बढ़ाने का आह्वान किया।
त्रिमूढ़ताओं से मुक्त रहने वाला साधक श्रावक है (श्रावक,प्रदीप, १.५)। वह त्रस-स्थावर जीवों की बात करने वाले वाणिज्य आदि से विरत नहीं होता पर धार्मिक कार्यों में वह उत्साहित रहता है (१-८)। पूजा और दान उसका मुख्य धर्म है, शास्त्र स्वाध्याय संरक्षणादि में प्रवृत्त रहता है, स्वोपकार और परोपकार में निरत रहता है, उपसर्ग निवारण में प्राण देकर भी काम करता है, गृहस्थी को सुचारु ढंग से संचालित करता है, पत्नी को पढ़ाता है, पति-पत्नी परस्पर में एक दूसरे से एक दूसरे की निन्दा नहीं करते, उपगूहन अंगधारी होता है, वादविवाद में नहीं उलझता (श्रावक प्रदीप प्रथम अध्याय)।
सही पाक्षिक श्रावक बनने के लिए जैनाचार्य ने एक दैनिक चर्या का निर्माण किया ताकि उसे आध्यात्मिक वातावरण उपलब्ध हो सके। तदनुसार वह ब्राह्म मुहूर्त में उठकर णमोकार मन्त्र का उच्चारण करे और “कोऽहं, को मम धर्मः, किं व्रतं' का चिन्तवन करें, सामायिक करे, स्नानादि से दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर कृतिकर्म(जिनपूजा तथा सामायिक) करे अपने चैत्यालय में प्रवेश करे, प्रतिक्रमण करे, मुनियों आदि का वन्दन करे। फिर मधुकरी वृत्ति पूर्वक अहिंसक व्यापार करे, टूकान खोले। मध्याह्न काल में पूजादिकर आहार ले। पात्रदान दे, सायंकाल स्वाध्याय करे और रात्रि में यथाशक्ति मैथुन को छोड़े (सागार, छठा अध्याय)। पानी छानकर पीना भी एक आवश्यक आचार संहिता है जो पूर्णत: वैज्ञानिक है।