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इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह ब्रह्मचर्य का मूल है।
ब्रह्मचर्याणुव्रत को “परदारानिवृत्ति” या स्वदारसन्तोषव्रत कहा गया है। परदारामिवृत्ति व्रत का पालन देश संयम के अभ्यास के उद्यत पाक्षिक श्रावक करता है और स्वदारसन्तोषव्रत का पान देशसंयम में अभ्यस्त नैष्ठिक श्रावक करता है। समन्तभद्र की इसी परिभाषा को उत्तरकालीन आचार्यों में किसी ने आधा और किसी ने पूरा लेकर प्रस्तुत किया हैं अमृतचन्द्रसूरि, आशाधर आदि विद्वानों ने नैष्ठिक श्रावक की दृष्टि से तथा सोमदेव आदि विद्वानों ने पाक्षिक श्रावक की दृष्टि से ब्रह्मचर्याणुव्रत का लक्षण किया है। यह अन्तर इसलिए हुआ कि वसुनन्दि के मत से दार्शनिक श्रावक सप्तव्यसन छोड़ चुकता है और सप्त व्यसनों में परनारी और वेश्या दोनों आ जाती है। अत: जब वह आगे बढ़कर दूसरी प्रतिमा धारण करता है तो वहाँ ब्रह्मचर्याणुव्रत में वह स्वपत्नी के साथ भी पर्व के दिन काम, भोग आदि का त्याग करता हैं परन्तु स्वामी समन्तभद्र के मत से दर्शन प्रतिमा में सप्त व्यसनों के त्याग का विधान नहीं है, अत: उनके मत से दर्शन प्रतिमाधारी जब व्रत धारण करता है तो उसका ब्रह्मचर्याणुव्रत वही है जो अन्य श्रावकाचारों में बतलाया है। पं० आशाधर ने इसी प्रकार का समन्वय किया है।२ हेमचन्द्र ने भी योगशास्त्र में ऐसा ही किया है। आश्चर्य हैं, सोमदेव ने ब्रह्मचर्याणुव्रती के लिए वेश्यागमन की छूट कैसे दे दी हैं।३
उमास्वामी ने ब्रह्मचर्याणुव्रत के पांच अतिचार बताये हैं- (१) परविवाहकरण, (२) इत्वरिका (गान-नृत्यादि करने वाली) परिग्रहीतागमन, (३) इत्वरिका अपरिग्रहीतागमन, (४) अनंगक्रीडा और (५) कामतीव्राभिनिवेश। इन्हें प्राय: सभी आचार्यों ने स्वीकार किया है जहाँ कहीं थोड़ा बहुत अन्तर अवश्य मिलता है। समन्तभद्र ने “इत्वरिकागमन" को एक ही माना है और विटत्व को दूसरा। सोमदेव ने इनके स्थान पर परस्त्रीसंगम
और रतिकैतव्य का संयोजन किया है।५ मल्लिषेण ने स्याद्वादमंजरी (पृ० २०८) में कहा है कि मैथुन सेवन में नौ लाख जीवों की हत्या होती है। आज की जनसंख्या वृद्धि समस्या हमारे सामने विकराल रूप से खड़ी हुई है। जनसंख्या की दृष्टि से हमारा देश आज दूसरे नम्बर पर है और आय लगभग सर्वाधिक कम है प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष ७२९.९ रु०। इस दृष्टि से हर डेढ़ सेकन्ड में एक बच्चे का जनम हो रहा है, जन्म दर प्रति
१. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ५९. २. उपासकाध्ययन, प्रस्तावना, पृ. ८१-८२. ३. उपासकाध्ययन, ४०५-६. ४. तत्त्वार्थ, ७.२८; उपासकदशांग, अ. १. ५. उपासकाध्ययन, ४१८.