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देवदाणवगन्धव्वा जक्खरक्खसकिन्नरा ।
वंभयारिं नमंसति, दुक्करं जे करेंति तं ।। ३-१६-१७ प्रश्न व्याकरण तक आते-आते, लगता है, महावीर को एक मत से सभी अपना नेता मानने लगे थे और उनके द्वारा प्रतिष्ठित ब्रह्मचर्य नामक पंचम याम को सर्व सम्मति से स्वीकृत कर चुके थे। इसी तथ्य का सूचक है संवरद्वार का वह सूत्र जहाँ कहा गया है कि सरलता से सम्पन्न साधु जनों द्वारा ब्रह्मचर्य का पूर्णतया आचरण किया जाता . है- अज्जवसाहुजणाचरितं।
ब्रह्मचर्यपालन में पूर्ण सशक्तता तथा गंभीरता लाने के लिए अचेलत्व एक अपरिहार्य तत्त्व है। उसके बिना व्रत का परिपाक नहीं हो पाता। चेल की साधना में परिग्रहण की आराधना घुसती चली जाती है और “निरासक्त भाव' की आड़ में साधना सिसकने लगती है। शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में इसी को इस प्रकार कहा है ।
नाल्पसत्वैर्न निःशीले न दीनै क्षनिर्जितैः। स्वप्नेऽपि चरितुं शक्यं ब्रह्मचर्यमिदं नरैः।। ११.५ ।।
इस उल्लेख से यह भी स्पष्ट है कि अचेलत्व के साथ ब्रह्मचर्यव्रत का परिपालन दुष्कर माना जाता था- उग्गं महव्वयं बम्भं, धारेययव्वं सुदुक्कर, उत्तरा. १९. २९। इसी स्वीकृति की पृष्ठभूमि में सचेल परम्परा पल्लवित होती रही है।
अचेल और सचेल दोनों परम्परायें इस तथ्य को स्वीकार करती हैं कि ब्रह्मचर्य के बिना आत्मदर्शन नहीं हो सकता। सभी व्रत उसी की आराधना से आराधित होते हैं
जम्मि य आराहियम्मि आराहियं वयमिणं सब्बं । सीलं तवो य विणओ य संजमो य खंती मुत्ती गुत्ती तहेव ।।
तम्हा निउणेन बंभचेरं चरियव्वं- ४.१ प्रश्न व्याकरणांग के इसी कथन को पद्मनन्दि पंचविंशतिका में यह कहकर पुष्ट किया गया है कि ब्रह्म निर्मल ज्ञान स्वरूप आत्मा है और उस आत्मा में लीन होना ही ब्रह्मचर्य है- आत्मां ब्रह्म विविक्त बोधनिलयो यत्तत्र चर्य परः, १२.८। आचार्य कुन्दकुन्द ने सीलपाहुड में इसके पूर्व ही उसे और भी सक्षम रूप से प्रतिष्ठित कर दिया था यह कहकर कि जीवदया, इन्द्रियदमन, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, संतोष, सम्यग्दर्शन, ज्ञान और तप ये सभी शील के परिवार हैं
जीव दया-दम-सच्चं, अचेरियं-बंभचेर-संतोसे। सम्मइंसण-णाणं तओ य सीलस्य परिवारो।।