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(६०) कर्मों से आजीविका चलाना)। इन नियमों का पालन करने से सादगी भरे जीवन का निर्माण होता है और परिवार सुखी रहता है।
४. नैष्ठिक श्रावकः आत्मिक उन्नति का दूसरा कदम १. ग्यारह प्रतिमायें
श्रावक के व्रतों का परिपालन करने वाला श्रावक नैष्ठिक कहलाता हैं कषायों के क्षयोपशम की क्रमश: वृद्धि करने की दृष्टि से श्रावक देशसंयम का घात करने वाली .. दार्शनिक ग्यारह प्रतिमा रूप समय स्थानों का पालन करता है।
नैष्ठिक श्रावक १ से ११ प्रतिमा तक के आराधक होते हैं। इसमें सम्यग्दर्शन ' की शुद्धता को प्राप्त किया जाता है, षडायतनों का पालन किया जाता है, जाति आदि आठ मदों से दूर रहा जाता है, लौकिक, पारलौकिक आदि सात भयों से मुक्त रहता है, संवेग, निर्वेद, उपशम, स्वनिन्दा, स्वगर्हा, अनुकम्पा, आस्तिक्य और वात्सल्य नामक आठ गुणों को प्राप्त करना है, सप्त व्यसनों और पंचपापों से दूर रहता है (श्रावक धर्मप्रदीप-द्वितीय अध्याय)। इससे इसकी चित्तवृत्ति शान्त हो जाती है। निम्नोक्त ११ प्रतिमायें नैष्ठिक श्रावक के आध्यात्मिक विकास की असमर्थतायें हैं- दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तत्याग, रात्रिभुक्ति त्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग।
इस वर्गीकरण का मूल आधार शिक्षावत्र रहा हैं आचार्य कुन्दकुन्द ने सल्लेखना को शिक्षाव्रतों में सम्मिलित किया है। वसुनन्दि ने उनका अनुकरण कर सल्लेखना को तृतीय प्रतिमा के रूप में स्वीकार किया पर उमास्वामी, समन्तभद्र आदि आचार्यों ने सल्लेखना को मारणान्तिक कर्तव्यों में रखा। कुन्दकुन्द, कार्तिकेय, समन्तभद्र आदि आचार्यों ने छठी प्रतिमा का नाम रात्रिभुक्तित्याम रखा। पर उत्तरकाल में उसके विवेचन में कुछ अन्तर हो गया। उपासकदशांग (१-६८) के टीकाकारों ने प्रतिमाओं के नाम इस प्रकार दिये हैं- दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, कायोत्सर्ग, ब्रह्मचर्य, सचित्ताहार त्याग, आरम्भत्याग, परिग्रहत्याग (भूतकप्रेष्यारम्भ वर्जन) उद्दिष्टभुक्तित्याग और श्रमणभूत' प्रतिमायें नवीन हैं। यहाँ हम सल्लेखना को मारणान्तिक कर्म मानकर सर्वमान्य प्रतिमाओं का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं२. दर्शन प्रतिमा : आत्मा में आस्था का स्वर
दार्शनिक श्रावक वह है जो सम्यग्दर्शन से शुद्ध हो संसार, शरीर और भोगों
१. दशाश्रुतस्कन्ध के छठे उद्देश्य में भी ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन मिलता है पर
कुछ भिन्न रूप में।