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मूलगुणों के इतिहास से ऐसा लगता है कि धीरे-धीरे लोगों की सरलता और बाह्य-प्रदर्शन की ओर प्रवृत्ति बढ़ती गई। अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि अणुव्रतों के स्थान पर पंचोदुम्बर त्याग का विधान बहुत छोटा है। इसलिए रत्नमालाकर ने पंच अणुव्रत और मद्य-मांस-मधु का त्याग रूप अष्टमूलगुण पुरुष के माने हैं और पँचोदुम्बर तथा मद्य-मांस-मधु त्याग रूप मूलगुण बच्चों के माने हैं।१ उदुम्बर फलों तथा मद्य-मांस-मधु के भक्षण की ओर हुई प्रवृत्ति को रोकने के लिए शायद यह विधान किया गया होगा। सावयधम्मदोहा में तो यहाँ तक कह दिया गया है कि आजकल जो मद्य-मांस-मधु का त्याग करे वही श्रावक है। क्या बड़े वृक्षों से रहित एरंण्ड के वन में छाया नहीं होती। जो भी हो, सामाजिक आचरण और पर्यावरण को प्रदूषित होने से अवश्य बचाया गया है इन मूल गुणों का परिपालन कराकर।
६. बारहव्रत और सामाजिक सदाचार
श्रावकाचारों में श्रावक के बारह व्रतों का उल्लेख इस प्रकार मिलता है- पांच अणुव्रत-अहिंसा, अस्तेय, सत्य, स्वदारसंतोष और इच्छां-परिमाण। तथा सात शिक्षाव्रत-दिग्व्रत, उपभोगपरिमाणव्रत, अनर्थदण्ड विरमण व्रत, सामायिक, देशावकाशिक, प्रोषधोपवास और अतिथिसंविभाग। जैन ग्रन्थों के अध्ययन से ऐसा लगता है कि महावीर का मूल उपदेश अहिंसा की पृष्ठभूमि में रहा होगा। बाद में उसी के स्पष्ट और विकसित रूप में बारह व्रतों की गणना आयी होगी। उवासगदसाओ (१.४७) में प्रथमत: दिग्व्रत और शिक्षाव्रत का निर्देश नहीं मिलता। उन्हें बाद में वहाँ जोड़ दिया गया हैं सल्लेखना और ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन वहाँ अवश्य मिलता है। इसे व्रत प्रतिमा के अन्तर्गत रखा जाना उचित है। ५. अणुव्रत आत्मा संरक्षण की प्रतिज्ञा
अणव्रती को त्रस जीवों का घात न हो ऐसे काम करना चाहिए। कृषि, धान्यसंग्रह, गुड़, तेलादि का संग्रह न करे। लाख, शस्त्र, चमड़ा, पशु-पक्षी आदि का व्यापार न करे। हिंसक पशु-पक्षियों को न पाले (उ०प० १७७-८३)। इसी के साथ प्रत्येक व्रत की पांच भावनायें है- पांच समितियां हैं। जिनसे अणुव्रतों को निर्दोष रूप से पालन करने में मदद मिलती है (भग. आ. २०८०)।
१. मद्यमांस मधुत्याग संयुक्ताणुव्रतानि नुः। अष्टो मूलगुणा: पंचोदुम्बरश्चार्यकेष्वपि।। .
रत्नमाला, १९. २. मज्जु मंसु महु परिहरइ क्षयइ सावउ सोइ। णीरक्खइ एरण्ड वजि किं ण मवाई
होइ।। सावयध म्मदोहा, ७७.