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(६२) अधिक विशुद्ध हो) और अनिवृत्तिकरण (हर समय परिणाम निर्मल हों)।
सम्यग्दर्शन अध्यातम क्षेत्र में एक प्रकार से विशुद्ध पर्यावरण है और मिथ्यात्व कर्म उसका प्रदूषण है। जिस प्रकार चक्की में पिसने पर कोदों के तीन भाग हो जाते हैं- चावल, भूसी और कण। उसी प्रकार उपशम सम्यग्दर्शन रूपी चक्की के द्वारा पीसे जाने पर मिथ्यात्वकर्म भी तीन भागों में बंट जाता है, मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व
और सम्यक्प्रकृति। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ मिल जाने पर सात भेद दर्शन मोह सप्तक कहलाते हैं। इन सातों प्रकृतियों के उपशम हो जाने पर उपशम सम्यक्दर्शन होता है (२.१६-१९)।
श्रावक चर्या का यह क्रमिक विकास साधक ही भावात्मक निर्मलता की विकासात्मक कहानी हैं यह विचार और कर्म में समन्वय स्थापित कर समता और सहिष्णुता के बल पर अपना जीवन-यापन करता है। ४. अष्टमूलगुण परम्परा और सामाजिक सदाचार ____ अष्टमूलगुणों का सर्वप्रथम उल्लेख आचार्य समन्तभंद्र ने किया है और उन्होंने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अचौर्य और अपरिग्रह ये पांच अणुव्रत तथा मद्य, मांस व मधु इनको मिलाकर अष्टमूलगुण माना है। परन्तु उनके पूर्ववर्ती आचार्य कुन्दकुन्द ने अष्टमूलगुण का उल्लेख भी नहीं किया। मात्र बारह व्रतों के नाम गिना दिये। संभव है कुन्दकुन्द ने मद्य, मांस, मधु के भक्षण का निषेध अहिंसा के अन्तर्गत कर दिया हो अथवा यह भी हो सकता है कि उनके समय मद्य, मांस, मधु के खाने की प्रवृत्ति अधिक न रही हो। समन्तभद्र के आते-आते यह प्रवृत्ति कुछ अधिक बढ़ गई होगी। इसलिए उसे रोकने की दृष्टि से उन्होंने मूलं गुणों की कल्पना कर उनके परिपालन का विधान कर दिया। परन्तु आश्चर्य है, तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार पूज्यपाद, अकलंक और विद्यानन्द ने भी उनका कोई उल्लेख नहीं किया।
रविषेण (वि.स. ७३४) ने दोनों मतों का समन्वय किया। एक ओर उन्होंने केवली के मुख से श्रावक के बारह व्रतों की गणना की तो दूसरी ओर मधु, मद्य, मांस, छूत, रात्रिभोजन और वेश्यागमन को छोड़ने के लिए “नियम' निर्धारित किया। प्रथम तीन के साथ-साथ अन्तिम दो दोषों का अधिक प्रचार हो जाने के कारण आचार्य को ऐसा करना पड़ा होगा। जटासिहंनन्दि ने कुन्दकुन्द का अनुगमन किया। कार्तिकेय ने पृथक् रूप में मूलगुणों का उल्लेख तो नहीं किया पर दर्शन-प्रतिमा में उन्हें सम्मिलित-सा १. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ६६. २. चारित्रप्राभृत, २२. ३. पद्मपुराण, १४.२०२. ४. वही, १४.२७२.. ५. वरांगचारित, २२.२९-३०.