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पांच भावनाओं में “आलोकित भोजन" को भी सन्निविष्ट किया गया है। भगवती आराधना (६-११८५-८६, ६.१२०७) में भी शिवार्य ने यही कहा है। सूत्रकृतांग के वैतालीय अध्ययन में और वीरस्तुति अध्ययन में रात्रिभोजन निषेध का स्पष्ट उल्लेख है। वीरस्तुति अध्ययन में तो इसे महावीर का विशेष योगदान कहा गया है। दशवैकालिक सूत्र में इसे छठवाँ व्रत माना गया है— छट्ठे भंते एव उवट्ठिओमि सव्बाओ राई भोयणावेरमण, १ कुन्दकुन्द' ने ग्यारह प्रतिमाओं में "रायभक्त” त्याग को छठी प्रतिमा कहा है और उनके टीकाकार श्रुतसागरसूरि ने "रात्रिभुक्तिविरत" कहा है।
दशवैकालिक आदि की इस परम्परा का विरोध भी हुआ । मुनियों के लिए तो उसका अन्तर्भाव “आलोकितपान भोजन" में हो ही जाता है। बाद में इसे अणुव्रतों में भी सम्मिलित कर दिया गया। यह परम्परा तत्त्वार्थसूत्र के सभी टीकाकारों अर्थात् पूज्यपाद, ३ अकलंक,४ विद्यानन्द, ५ भास्करानन्दि, ६ एवं श्रुतसागरसूरि ̈ की। इनमें रात्रिभोजन त्याग को छठा अणुव्रत नहीं माना बल्कि उसका अन्तर्भाव “आलोकित भोजनपान" में कर दिया आचार्यों ने।
समन्तभद्र ने छठी प्रतिमा का नाम " रात्रिभुक्तिविरत" रखा । ' कार्तिकेय ने भी इसे स्वीकार किया । " यहाँ छठी प्रतिमा के पूर्व रात्रिभोजनविरमण की बात का कोई उल्लेख नहीं मिलता। देवसेन, १° चामुण्डराय ११ और आशाधर १२ ने भी इसी मत का अनुकरण किया है।१३ चारित्रसार (प. १९), उपासकाचार (श्लोक ८५३), वसुनन्दि श्रावकाचार (गा. २९६), अमितगतिश्रावकाचार ( ७.७२), भावसंग्रह ( ५३८), सागारधर्मामृत (७.१२) में इसका दूसरा ही अर्थ किया गया हैं वहाँ कहा गया है कि ज़ो केवल रात्रि में ही स्त्री भोग करता है और दिन में ब्रह्मचर्य पालता है उसे “रात्रिभुक्तव्रत”
१. सूत्रकृतांग, ४.१६-१७; ८.२८. २. ३. सर्वार्थसिद्धि, ७.१; सं० टीका पृ० ३४३-४. ४. ं तत्त्वार्थवार्तिक, ७.१; सं० टीका पृ० २-४३४. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, ७.१, सं० टीका ५.४५८.
६. सुखबोधिका टीका, ७-१ (स०टी०).
७. तत्त्वार्थवृत्ति, ७.१, सं० टीका. ८.
९. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३८२.
चारित्रप्राभृत, २१.
रत्नकरण्ड श्रावकाचार, १४२.
दर्शनसार.
१०.
११. चारित्रसार, पृ० ७.
१२. अनगार धर्मामृत, ४.५०.
१३. रात्रिभोजन विरमण – डॉ. राजाराम जैन, गुरु गोपालदास वरैया स्मृति ग्रन्थ,
पृ. ३२३-६.