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सदी ई०पू०) ने अपने निरुक्त में चोरी, व्यभिचार और मदिरापान को पापों में गिनाया (६.२०)। शायद इसीलिए व्यभिचारी व्यक्ति को घृणा से शिश्नदेव कहा जाता था (५.१६)। वहीं चोरी को गर्दा कर्म (३.१५) और द्यूत को कितव कहा गया है जिन्हें उस समय बुरी आदत में गिना जाता था (५.२२)। इसी तरह याज्ञवल्क्य ने पांच महापातक गिनाये हैं- ब्राह्मण हत्या, स्वर्णचोरी, सुरापान, गुरुपत्नी का उपभोग और इन चारों पातकों में लिप्त रहना (३.२२२)। यहीं उपपादकों (व्यसनों) की एक लम्बी सूची भी दी गई है और पातक के अनुसार प्रायश्चित्त का भी विधान किया गया है। - इतना ही नहीं, ऋग्वेद (१२.१६२.१३; २१.२२. १६२.१२) में मांस, व्यभिचार, मदिरापान, हिंसा आदि को कष्टकारी बताया गया हैं- मनुस्मृति में तो व्यसन शब्द का स्पष्ट प्रयोग हुआ है (५२) और मांस भक्षण (५३, १७३), मदिरापान (३५५), द्यूत (१७९, ३५५), परस्त्री सेवन, व्यभिचार, वेश्यावृत्ति (१७९, ३५५) आदि जैसी आदतों से दूर रहने के लिये कहा गया है। संहिताओं, आरण्यकों आदि ग्रन्थों में भी व्यसनों का काफी उल्लेख हुआ है।
कतिपय ग्रन्थों में मद्य, मांसादि के सेवन को विहित माना गया है अवश्य पर उसके रहने वाले कारण पर भी विचार कर लेना आवश्यक हैं। ऐसा लगता है, क्रूर, बनने के लिए व्यसन-सेवन जरूरी-सा हो जाता है। क्षत्रिय एक योद्धा वर्ग था, राष्ट्र का संरक्षण उसके सवल कंधो पर था। बिना क्रूर हुए वह युद्ध में सफल नहीं हो सकता था। इसलिए कुछ लोगों ने योद्धाओं की सफलता की दृष्टि से यह विधान कर दिया। संवेदनहीन खेल को भी इस तरह के मनोरंजन के साधन बना दिये गये कि एक तरफ चीत्कार की आवाज सुनाई देती है तो दूसरी तरफ उसे देख-सुनकर लोग आनन्दित होते हैं। पर यह स्थिति अपवादात्मक है।
इस भूमिका के साथ अब हम सप्तव्यसनों पर भारतीय साहित्य और संस्कृति के आधार पर विचार करेंगे और देखेंगे कि जैन श्रावकाचार संहिता की दृष्टि से जैनाचार्यों ने उन्हें किस रूप से देखा समझा है। ३.१. धूत (जुआ)
पुराणकाल में द्यूत-क्रीड़ा एक मनोरंजन का साधन था। द्यूत में कुशलता देखकर राजा को प्रसन्न किया जाता था (मत्स्य पु० २१६.८)। विष्णुपुराण (४.४.३७) से पता चलता है कि कतिपय राजे द्यूत में बड़े अभ्यस्त होते थे। पर मत्स्यपुराण ( २२०.८) उसे राज विनाश का भी कारण मानता है। शतपथ ब्राह्मण (५.३.१-१५) का कहना है कि यज्ञकर्ता भी जुआ खेलता था। कौटिल्य ने उसे राजाओं के लिए हेय माना है (अर्थशास्त्र पृ० ३९९)।