________________
(५७) का रूप ले लेने पर वह घनघोर अशान्ति असम्मान और दुःख का कारण बन जाती है। सभी धर्मों ने चोरी को महापातक माना है भले ही उसकी व्याख्या कैसी भी की गई हो।
जैन परम्परा में चोरी पर भी बड़ी गहराई से विचार किया है। वहाँ गड़ा धन ग्रहण करना भी चोरी माना गया है। तराजू को कम-बढ़ करना, चोरी का उपाय बताना, चोरी का माल खरीदना, देश में युद्ध छिड़ जाने पर पदार्थों का संग्रह करना भी एक प्रकार से चोरी की ही सीमा में आ गया है। श्रीभूतिने भद्रमित्र की धरोहर (रत्न) वापिस नहीं की जिसके कारण बाद में वह पकड़ा गया (३७५ पद्म) और चोरी का दण्ड दिया गया। चोरी के कारण जो आपत्तियाँ आती हैं वे हैं- अनेक यातनायें, थर-थर कांपना, भयभीत होना, आत्मीय जनों के भी द्रव्य का अपहरण होना, परलोक से भी नहीं डरना, अपमान, फांसी आदि (वसु०. श्रा० १०१-१११)। आजकल का भ्रष्टाचार और स्केण्डलसं आदि भी चोरी के ही अन्तर्गत आते हैं।
सूत्रकृतांग आदि ग्रन्थों में बिना दी हुई चीज को ग्रहण करना चोरी माना गया है और अचौर्य व्रतधारी व्यक्ति-साधक के लिए दांत कुरेदने के लिए तिनका भी न लेने का विधान किया गया है (१०-२; उत्तरा; १९.२८)। प्रश्न व्याकरण सूत्र में चोरी के तीस नाम दिये गये है जो उसकी प्रकृति को दर्शाते है- परहत, अदत्तादान, क्रूरकृत, परद्रव्यलाभ, असंयम, लम्पटता, तस्करता, अपहरण, पापकर्म का कारण, अप्रीतिकारक, विनाश, छल कपट कर्म आदि (सू० १०)। चोरी के मूल कारण हैंदरिद्रता, फिजूलखर्ची, यश:कीर्तिकी लालसा स्वभाव, अराजकता, अज्ञानता आदि (उत्तरा० ३२-२९)।
भोग वासना पर संयम न होने का फल चौर्य व्यसन को अमन्त्रित करना है। जैनाचार्य ने चोरी को आध्यात्मिक और सामाजिक दोष के रूप में अभिव्यक्त किया हैं। सारे श्रावकाचारों में इसे अणुव्रतों के अन्तर्गत रखा गया है जो श्रावक होने का प्राथमिक लक्षण है।
जैनधर्म में वर्णित ये सप्त व्यसन सभी प्रकार के व्यसनों को अन्तर्भूत कर लेते हैं और एक के आने पर सभी अप्रतिहत गति से चले आते हैं। जैनाचार्यों ने इनकी हानियों पर खूब प्रकाश डाला है और व्यक्ति को सम्बोधित कर उसके जीवन से अन्धकार को दूर करने का प्रयत्न किया हैं इस संदर्भ में अनेक जैनाचार्यों ने अनेक कथाओं का निर्माण किया है और यह स्पष्ट किया है कि सप्तव्यसन एक दूसरे से सम्बद्ध है। जीवन में एक के प्रवेश हो जाने पर दूसरों के प्रवेश को रोका नहीं जा सकता। वह एक आदत बन जाती है जो विवेक पर परदा डालकर मन में बैठ जाती है। परिस्थिति का बहाना कर विवेक को दरकिनारे कर दिया जाता है। फलत: अपराध, अकर्मण्य, आलस, अक्षमता,