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है? क्योंकि यह पुण्य पितरों से भिन्न पुत्र आदि से किया हुआ रहता है, तथा यह पुण्य जड़ और गतिहीन है। उसका सम्बन्ध पुत्र से हो कैसे सकता है? वह तो निज. अध्यवसायजन्य है। अतएव श्राद्धजन्य पुण्य न तो पितरों का पुण्य कहा जा सकता है और न पुत्रों का। वह तो त्रिशंकु जैसा लटका रह जाता है। .
___ मल्लिषेण ने आगे कहा कि मनुस्मृति (५.५६) का यह कहना नितान्त गलत है कि 'न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने। प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला' क्योंकि यदि मांसादि के भक्षण में दोष है ही नहीं तो उसकी निवृत्ति फल. का प्रश्न ही कहाँ उठेगा? अन्यथा अनुष्ठानादि से निवृत्त होने का भी फल मानना पड़ेगा। यहाँ वस्तु प्रवृत्ति का अर्थ "उत्पत्ति-स्थान" किया जाना चाहिए। आगम में भी मद्य, मांस, मैथुन को जीवों की उत्पत्तिस्थान माना जाता है। रत्नशेखरसरिकृत. सम्बोधसप्ततिका में (६३-६९) यह अधिक स्पष्ट किया गया है।
अहिंसा की साधना में हमें सर्वप्रथम नियति के सही रूप को समझना होगा और उसके निरपेक्ष भाग्यवाद की भूमिका को पुरुषार्थ के सन्दर्भ में स्पष्ट करना होगा। हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि नियति सौर्वभौमनियम है, अपरिवर्तनीय है और पुरुषार्थ के द्वारा हम उसे बदलते हैं। परिवर्तन में पुरुषार्थ का बड़ा महत्त्व है। जैन दर्शन पुरुषार्थ वादी दर्शन है। उसमें कर्म की एक सीमा परिकल्पित है। तदनुसार हर घटना को कर्म के साथ जोड़ना ठीक नहीं। पुरुषार्थ ही कर्म को बनाता हैं इस दृटि से पुरुषार्थ बड़ा है, कर्म नहीं। यह मानकर अहिंसा की साधना करना चाहिए। अहिंसा की साधना. का आन्तरिक सूत्र है भावशुद्धि, मैत्री का विकास और व्यावहारिक सूत्र है अनावश्यक हिंसा का वर्जन। हिंसा चार प्रकार की है- आरम्भजा, उद्योगजा, विरोधजा और संकल्पजा। व्यवहारिक दृष्टि यह है कि वह पहले संकल्पजा हिंसा छोड़े और प्रयत्न करे कि काम व अर्थ पुरुषार्थ धर्म और मोक्ष को बाधित न कर पायें। अहिंसा की सही साधना तभी हो सकेगी। इस साधना में गृहस्थ चारों प्रकार की आरम्भी, उद्योगी और विरोधी तथा संकल्पी हिंसाओं में से संकल्पी का त्यागी रहता है। इस संकल्पी में दूसरों को सताना, न्यायमार्ग का उलंघनकर द्रव्यार्जन करना भी अन्तर्भूत है।
अहिंसा के दो रूप दिखाई देते हैं एक निषेधात्मक और दूसरा विधेयात्मक। षट्काय जीवों की हिंसा न करना ये उसका निषेधात्मक रूप है और उन पर दया करना, अभय देना आदि विधेयात्मक रूप है। प्रश्नव्याकरणांग में अहिंसा के ६० पर्यायार्थक दिये हुए हैं। उनमें दया, रक्षा आदि विधेयात्मक पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है।
१. स्याद्वादमंजरी, पृ. ९५-९८.